शनिवार, 28 सितंबर 2019

मौन प्रश्न और मौन उत्तर

जितेश 
आचानक राजदूत मिथिला पहुंचा और महाराज जनक को प्रणाम  किया। उसने भारी मन से अयोध्या में हुए सीता के अन्याय का वृतांत सुनाते हुए कहा "हे नरेश जानकी के साथ घोर अन्याय हुआ है। अयोध्यावासी ने उनके चरित्र पर प्रश्न करते हुए कहा है कि रावण के कैद में रहने के कारण सीता अपवित्र हो गई है। उसका पति अयोध्या का राजा राम ने भी आपकी दुलारी पुत्री का परित्याग कर दिया है। उसे गर्भावस्था में वनवास को भटकने के लिए छोड़ दिया है।"
महाराज जनक दूत की बात सुनकर शोक में डूब गये। इसी वृत्तांत को सुनकर उनकी महारानी बीमार पड़ गई। कुछ दिन बीतने के पश्चात हृदय में गुस्सा और धर्म, अधर्म न्याय, अन्याय के कई प्रश्न संयोजे जनक
अयोध्या पधारे। रात्रि के समय अचानक उनका रथ अयोध्यानगरी में प्रवेश करता है लक्ष्मण संदेश लेकर राम के पास पहुंचे। भैया महाराज जनक अयोध्या पधारे है। अविलंब आपसे मिलने की इच्छा प्रकट की है। राम उसी अवस्था में अपने अंत: पुरी से निकलकर महाराज जनक की ओर दौड़े। द्वार पर जनक खड़े थे। राम, जनक के समीप पहुंचते ही अपना राजमुकुट उनके चरणों में रख कर साष्टांग लेट गये। भगवान राम पूरी विनम्रता से बोले "महाराज जनक मैं आपका अपराधी हूं, आपकी पुत्री के साथ, स्वयं अपनी पत्नी सीता के साथ अन्याय किया हूं, एक अन्यायी और अधर्मी हूं, आप मुझे दंड दे।"
इसके बाद भी जनक का क्रोध उतरा नहीं था। वो राम से बोले "हे राजन मुझे अपने अंत:पूरी में ले चलो। क्योंकि जनक के मन में अभी भी शंका थी। राम अपने अंत:पूरी में राजसी वैभव,भोग-विलास, ठाठ-बाट से रहते हैं। जैसे ही जनक अंत:पूरी पहुंचते हैं, उनका गुस्सा खत्म हो गया, सारे ह्रदय के प्रश्न गौण हो गये। वो लज्जा से सिकुड़ गये।  उन्होंने देखा एक राजा अपने अंत:पूरी में कुश चटाई पर एक सन्यासी की तरह सोता है। उन्होंने देखा राम का व्यक्तिगत जीवन तपस्वी की भांति है, जिस राम ने वनवास काल में बड़े-बड़े राक्षसों का वध किया, रावण का वध किया हो। ऐसा प्रतापी राजा कुश के बिछावन पर भगवा ओढ़े सोता है। अपना भोजन भी स्वयं पकाता है। जनक अब सबकुछ समझ गये थे। तपस्वी राम के सामने मौन रह गये। उनके हृदय के सभी प्रश्न खत्म हुआ और रो पड़े। पश्चाताप के आंसू लिए जनक कहते हैं "आज शंका दूर हुई। हे राम तुम ही नारायण हो।" तुमने सदैव पुत्री सीता के मान-सम्मान के लिए अपने सुख, यश, वैभव को ठोकर मारा है। कल कोई सीता पर लांछन ना लगाएं। इसलिए स्वयं दोषी होना स्वीकार किया है। तुम धन्य हो। हे मर्यादा पुरुषोत्तम। जिस पथ पर तुमने जीवन भर चला है। सदियों तक लोग इसे भूलेंगे नहीं। आज तुम्हारे कारण, मैं भी अमर हो गया। 
इस तरह महाराज जनक को बिना प्रश्न किए ही सारे उत्तर मिल गये। राम का दोष भूल कर, उनका गुणगान करने लगे। स्थिति परिवेश, व्यक्ति का प्रभाव, चरित्र की शुद्धता से राम भी मौन रहे और जनक को भी बिना कुछ बोले ही सारे उत्तर मिल गये। हमें भी महाराज जनक की तरह राम के अंत:पुरी को देखना चाहिए।

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