वर्ष
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कानून/अधिनियम
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1799
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भारत में पहला मीडिया कानून
आया। गवर्नर जनरल ने समाचार पत्र के प्रकाशक, मुद्रक और संपादक का ना छापना
अनिवार्य कर दिया। सामग्री छापने से पहले सेंसरशिप का प्रावधान लाया। अगले जनरल
वारेन हेस्टिंग्स ने इस आदेश को रद्द कर दिया।
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1825
|
‘मेटकाफ
कानून’ आया। प्रकाशन स्थल की घोषणा
अनिवार्य किया।
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1857
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लार्ड कैनिंग ने किसी भी मुद्रित
सामग्री के लाइसेंसिंग को अनिवार्य किया।
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1860
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भारतीय दंड संहिता (आईपीसी)
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1867
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प्रेस व पुस्तक पंजीकरण कानून
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1870
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राजद्रोह (धारा 124ए)
|
1885
|
भारतीय टेलीग्राफ कानून
|
1894
|
भारतीय डाक कानून
|
1898
|
दो समुदायों में विद्वेष
भड़काने (धारा 153ए) संबंधी कानून
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1923
|
सरकारी गोपनीयता कानून
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1927
|
राष्ट्रीय एकता को चुनौती
देना (धारा 153बी) और धार्मिक भावनाओं को चोट (धारा
295ए)
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1931
|
भारतीय प्रेस (आपातकालीन) अधिकार
कानून
|
1951
|
प्रेस (आपत्तिजनक सामग्री) कानून
बना। 56 में रद्द हो गया।
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1952
|
सिनेमैटोग्राफी अधिनियम
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1954
|
पुस्तकें व अखबार वितरण (सार्वजनिक पुस्तकालय) कानून
|
1954
|
दवा व चमत्कारिक इलाज अधिनियम
|
1955
|
श्रमजीवी पत्रकार व अन्य
कर्मचारी (सेवा
शर्तें) अधिनियम
|
1956
|
समाचारपत्र (मूल्य व पेज) कानून
|
1957
|
कॉपीराइट एक्ट
|
1965
|
प्रेस परिषद अधिनियम
|
1969
|
मोनोपोली एंड रिस्ट्रीकटीव
ट्रेड प्रैक्टिसेज एक्ट
|
1977
|
संसदीय कार्यवाही (प्रकाशन से रोक) अधिनियम
|
1978
|
दूसरा प्रेस परिषद अधिनियम
|
1981
|
सिनेकर्मी व थियेटरकर्मी (सेवा नियमन) अधिनियम
|
1983
|
सिनेमा प्रमाणन नियम (सेंसरबोर्ड प्रमाणपत्र वाला)
|
1986
|
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम
|
1986
|
महिलाओं का अमर्यादित
प्रस्तुति (प्रतिबंधात्मक) कानून
|
1990
|
प्रसार भारती अधिनियम
|
1995
|
केबल टेलीविजन नेटवर्क्स (नियमन) कानून
|
1997
|
ट्राई एक्ट
|
2000
|
आईटी एक्ट
|
2005
|
सूचना अधिकार कानून
|
2008
|
सूचना प्रोद्यौगिकी अधिनियम (संशोधन) (आईटी
एक्ट)
|
भारतीय संविधान में मीडिया
वर्तमान समय में मीडिया की
अहमियत किसी से छिपी हुई नहीं है। ऐसा कहना अनुचित न होगा की आज हम मीडिया युग में
जी रहे है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र और
प्रत्येक रंग में मीडिया ने अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया है।
किसी भी लोकतांत्रिक देश में
अभिव्यक्ति या बोलने की आजादी काफी मायने रखती है क्योंकिं यदि आज़ादी बने रहे तो
व्यक्तियों के बाकी के अधिकार भी बने रहते है। यदि
देखा जाये तो अभिनय,मुद्रित शब्द,बोले
गए शब्द और व्यंग्य चित्र आदि के द्वारा मिली अभिव्यक्ति के आज़ादी बाकी के सभी
आज़ादियों का मूल है। इसीलिए व्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यक्ति का मूल आधार माना
गया है। संविधान में मूल रूप से कुल 7 मौलिक
अधिकार वर्णित किये थे जिन्हें भाग ३ के अनुच्छेद 12
से 35 तक में विस्तार से बताया गया
है।
सन 1976 में 44 वें
संविधान संसोधन में सम्पति के अधिकार को मूल अधिकारों में से हटा दिया गया इस
प्रकार अब कुल भारतीय नागरिक को कुल ६ अधिकार प्राप्त है :-
1. समता
का अधिकार (अनुच्छेद 14
-18)
2. स्वतंत्रता
का अधिकार (अनुच्छेद 19)
3. शोषण
के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद
23-24)
4. धार्मिक
स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद
25-28)
5. संस्कृति
और शिक्षा संबंधी अधिकार(अनुच्छेद
29 -30)
6. संवैधानिक
उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद
32-34)
हालाकिं संविधान में
प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता का कहीं कोई सीधा उल्लेख नहीं किया गया है।
लेकिन अनुच्छेद 19 में
दिए गए स्वतंत्रता के मूल अंधिकार को प्रेस की स्वतंत्रता के समकक्ष माना गया है।
प्रेस की आज़ादी
सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर
संविधान के प्रावधानों को स्पष्ट करते हुए प्रेस की आज़ादी की व्याख्या की है।
चूकीं मीडिया ,प्रेस
का ही और विस्तारित स्वरुप है इसलिए हम मीडिया की आज़ादी को हम प्रेस की आज़दी के
समरूप मान सकते है।
1.
सार्वजनिक मुद्दों पर सार्वजनिक रूप से बहस ,चर्चा,परिचर्चा।
2. किस भी
अमेचर का प्रकाशन और मुद्रण।
3. किसी
भी विचार या वैचारिक मत का मुद्रण और प्रकाशन।
4. किस भी
श्रोत से जनहित की सूचनाएं एवम तथ्य एकत्रित करना।
5. सरकारी
विभागों,सरकारी उपक्रमों
सरकारीप्राधिकर्णों और लोकसेवको कार्यों एवम कार्यशैली की समीक्षा करना,उनकी
आलोचना करना।
6. प्रकाशन
या प्रकाशन सामग्री का अधिकार अर्थात कौन सी खबर प्रकशित या प्रसारित करनी है।
7. मीडिया
माध्यम का मूल्य/शुल्क निर्धारित करना ,माध्यम
केप्रचार के लिए नीतितेकरण और अपनी योजनानुसार ,सरकारी
दबाव से मुक्त रहकर संबंधी गतिविधि चलाना।
8. यदि
किसी कर के प्रसार पर विपरीत प्रभाव पड़ता हो टॉस कर से मुक्ति।
9. प्रेस
की स्वतन्त्रता में पुस्तिकाएं,पत्रक
और सूचना के अन्य भी सम्मिलित है।
मीडिया
की स्वतंत्रता हमेशा विवाद का
रहा है क्योकिं मीडिया पर न तो पूरी तरह से प्रतिबन्ध लगाना उचित है और न ही
इसे हर कानून से सकता है। इस तरह
फैसले पर पहुचने के लिए न्यायपालिका ,कानून
की युक्तियुक्त जाँच करता है। क्योकि संविधान के अनुच्छेद 19(2) में
कहा गया है की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर केवल
युक्तियुक्त प्रतिबन्ध ही लगाए जा सकते है। सर्वोच्च न्यायलय ने निम्नलिखित
मामलों में मीडिया पर युक्तियुक्त प्रतिबंध
लगाने को तर्कसंगत ठहराया है।
1. राष्ट्र
की प्रभुता और अखंडता
2. राज्य
की सुरक्षा
3. विदेशी
राज्यों के साथ संबंध
4. सार्वजनिक
व्यवस्था
5. शिष्टाचार/सदाचार
6. न्यायालय
की अवमानना।
7. मानहानि।
8. अपराध
को उकसाना
मीडिया और मीडिया विधि का
इतिहास
जैसा की हम सभी को ज्ञात है की
भारत में मीडिया का उद्धभव हिक्की के द्वारा 1780 में
पहला भारतीय पत्र हिक्की गजट के नाम से निकला था।
19वीं
शताब्दी के प्रारंभ के साथ ही भारत में चेतना की लहर जाग चुकी थी ,और अब
तक पत्रकारिता भी अपनी पकड़ जनमानस में बनाने लगी थी।लेकिन जब पत्रकारिता अपना
पैर पसारना प्रारंभ ही किया था की ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीय प्रेस पर अंकुश
लगाना प्रारम्भ कर दिया था। जिनमें प्रेस पर सेंसर ,अनुज्ञप्ति
नियम,पंजीकरण नियम,देशी
भाषा समाचार अधिनियम और समाचार पत्र अधिनियम
जैसे प्रमुख कानून लगाए गए थे।
ब्रिटिश
हुकूमत के द्वारा भारतीय पत्रकारिता पर लगाए गए कुछ प्रमुख कानून इस प्रकार है।
प्रेस नियंत्रण अधिनियाम
भारतीय पत्रकारिता पर सबसे पहली
बार ईस्ट इंडिया कंपनी के सासन कल मे सन 1799 मे
प्रैस नियंत्रण अधिनियम लागू किया | इस अधिनियम
के द्वारा समाचार- पत्र के संपादक ,मुद्रक
और स्वामी का नाम स्पष्ट रूप से अखबार मे प्रकाशित करना अनिवार्य कर दिया | इसके
अलावा इस अधिनियम द्वारा यह भी अनिवार्य का र्डिया गया की प्रकशन से पूर्व , प्रकाशित
किए जाने वाले असमाचर को प्रकाशक ,सरकारी
सचिव को देंगे और सचिव द्वारा अनुमोदन के बाद ही किसी समाचार को प्रकाशित किया जा
सकेगा |
इस
प्रकार इस अधिनियम के द्वारा प्रैस की आजादी की पूरी तरह से गला घोंट दिया गया |सान 1807 मे
पुस्तकों ,पत्रिकाओ
और यहा तक की पम्प्फ़्लेतों को भी इस अधिनियम का दंड मिलता था लार्ड हेस्टिंग्स ने
सेससोरशिप अधिनियम को समाप्त कर ,संपादकों
के मार्गदर्शन के लिए ऐसे नियम बनाए जिससे पत्र-पतरकरिता
मे ऐसे समाचार न छाप पाये जो ब्रिटिश सरकार के खिलाफ हो |
1823 के
अनुज्ञप्ति नियम
अ॰ प्रत्येक प्रकाशक व मुद्रक
को सरकार से लाइसेंस प्राप्त करना होगा | बिना
लाइसेंस के प्रकशन पर 400 रुपए
जुर्माना या कारावास का दंड दिया जा सकता था
ब॰ सरकार किसी भी समाचार-पत्र
का लाइसेंसे रध कर सकती थी |इसके
बाद आये गवर्नर जनरल ,विलियम
बैंटिक ने यधपि लाइसेंसे अधिनियम 1823 को
समाप्त नहीं किया |
1857 का
अनुज्ञप्ति अधिनियम
1875
के गदर के कारण सरकार ने एक बार फिर भारतीय प्रैस को प्रतिबंदित कर दिया | चूंकि
यह एक संकटकालीन व्यवस्था थी अत: एक
वर्ष बाद यह वयवस्ता समाप्त हो गयी और मेटकफ़ द्वारा बनाए गए नियम पूना:लागू
हो गए |
1867 क
पंजीकरण अधिनियम
मेटकफ़
के नियमो को 1857 मे ‘पंजीकरण
अधिनियम ‘के रूप
मे परिवर्तित कार दिया गया| यह अधिनियम प्रैस की स्वतंतत्रा
को सीमित नहीं करता था |इसके
अनुसार ,प्रकासक
को प्रकासन के एक माह के भीतर पुस्तक की एक प्रति बिना मूल्य के सरकार को देनी
होती थी |
देशी भाषा समाचार-पत्र
अधिनियम ,1878 (वर्णाकुलर
प्रेस एक्ट )
1987 क
ईआईएस अधिनियम मे सरकार ने भारतीय समाचार-पात्रो
पर अधिक कडा अंकुश लगाने का प्रयत्न किया | इस
अधिनियम के मजिस्ट्राटों को यह अधिकार भी दिया गया की वे किसी भी भारतीय भाषा के
समाचार-पत्र के प्रकासक से यह आश्वासान
ले की कोई भी ऐसे सामाग्री परकाशित नहीं करेगा जिसेसे शांति भंग होने की आशंका ही |
1881 मे
लार्ड रिपन ने वर्णाकुलर प्रेस एक्ट को समाप्त कार दिया परंतु बाद मे लार्ड करजन
ने भारतीय दंड सहिंता मे नए प्रावधान करके भारतीय प्रैस
की स्वतंत्रा को पूना: प्रतिबंदित
करने की जो शुरुवात की वह आगे स्वंतत्राता प्राप्ति तक चलती रही |
समाचार-पत्र
अधिनियम 1908
लार्ड कर्ज़न की दमनकारी नीतियो
से भारतीय ने व्यापक असंतोष पैदा हुआ तथा उससे उत्तेजित होकरा क्रांतिकरियों ने
कुछ हिंसात्मक करवाइया भी की |समकालीन
समाचार-पात्रो ने इसके लिए सरकार की
तीव्र आलोचना की | विद्रोह
को दबाने के लिए सरकार ने 1908 मे एक
अधिनियम पारित किया जिसमे मजिस्ट्रेट को यह अधिकार दिया गया था की वे ऐसे समाचार-पत्र
अथवा उसकी संपाती को जब्त कार ले जो आपतिजनिक सामाग्री छापता हो |
भारतीय समाचार –पत्र
अधिनियम 1910
इस
अधिनियम द्वारा भारतीय प्रैस और अंकुश लगाया गया सरकार को जमानत जप्त करने और
पंजीकारण राद्ध करने का अधिकार दिया गया | अधिनियम
के लागू होने के बाद 5 वर्षो
मे सरकार द्वारा लगभग 5 लाख की
जमानते जब्त की गयी |
सन 1921 मे
तत्कालीन वायसराय की काउंसिल के विधि सदस्य तेज बहादुर सप्रू की अध्यक्षता मे एक
समाचार पत्र समिति की नियुक्ति की गयी बाद मे समिति की सिफ़ारिश पर 1908 और 1910 के
नियम रद्ध कर दिये गए |
20वी
शताब्दी के चौथे दशक मे स्वंत्रतता आंदोलन के तीव्रतर होने के कारण समाचार-पत्रो
पर अधिक नियंत्रण करने के उद्देश्यय से सन 1930 मे
सरकार ने एक नया समाचार-पत्र
अध्यादेश जारी किया जिससे अनुसार 1920 के
अधिनियम की व्यवस्थाए पून: लागू
कर दी गयी |
सन 1932 मे
सरकार ने दो और अधिनियम पारित किए इनमे एक था ,क्रिमिनल
ला अमेंडमेंट एक्ट ,जो 1931 के
अधिनियम का ही विस्तार था | इसके
द्वारा 1931 के अधिनियम की धारा (4) को और
अधिक व्यापक बना दिया गया और इनमे सभी गतिविधिया शामिल कर दी गयी जिनसे सरकार की
प्रभुसत्ता को हानी पहुंचायी जा सकती थी |
सरकार
द्वारा दीन प्रतिदिन कड़े जा रहे अंकुशों से छुटकारा पाने के लिए प्रेस को संहठित
करने के प्रयास 1939 मे किए गये जब ‘द
इंडियन एंड इस्टेर्न न्यूज़ पेपर सोसाइटी’ की
स्थापना हुयी |सोसाइटी
के उद्देशयो मे भारत ,बर्मा
और श्रीलंका की प्रेस के लिए एक केन्द्रीय संस्था के रूप मे कम करना ,सदसयो
के उन व्यवसिक हितो की सुरक्षित रखते हुए उन्हे विकसित करना जो सरकार ,विधायिका
या न्यायालय द्वारा दुष्प्रभावित हुये हो ,व्यावहारिक
रुचि के किसी विषय पर सूचना एकत्र करना और इसे सदस्य देशो तक पाहुचना ,समान्य
हितो को प्रभावित करने वाले विषयो पर पारसपरिक सहयोग विकसित करना ,शामिल
था
1939
मे भारतीय सुरक्षा कानून नियम को प्रेस प र्भी लागू कर दिया गया | इस
व्यवस्था के अंतर्गत भारतीय प्रेस पर लगाए गए प्रतिबंधों पर विचार-विमर्श
करने के लिए दी हिन्दू के संपादक श्रीनिवासन
की अध्यक्षता मे 1940 मे दिल्ली मे एक सम्मेलन
बुलाया गया | उसके
बाद एक दूसरी बैठक मे परिणामस्वरूप आल इंडिया
न्यूज़पेपरसंघ की स्थापना हुयी |
दूसरी
और प्रेस को पंगु बनाने की सरकारी प्रक्रिया चलती रही | अगस्त ,1942 मे
सरकार ने कुछ और प्रतिबंध लगाए जिनका संबंध नागरिक उपद्रवों से संभदीत समाचारो क
सीमित करना,संवदाताओ का पंजीकरण करना ,तोड़- फोड़ से
संबंदीत समाचारो को प्रकाशन को प्रतिबंदित करना था |स्वाभाविक
रूप से समाचार-पात्रो ने इसका विरोध किया और ‘नेशनल
हेराल्ड’ ,इंडियन एक्सप्रेस
और हरिजन ने तो अपना प्रकासन ही बंद कर दिया |
स्पष्ट
है की दमनकारी नीतियो व कड़े अंकुश के बावजूद भारतीय प्रेस भारतवासियों को जाग्रत करने ,विभिन्न
क्रांतिकारी विचारो से उन्हे अवगत करने तथा स्वाधीनता संग्राम मे उल्लेखिय योगदान
देने मे सफल रहा |
प्रेस
की आजादी के लिए संघर्ष
19वी सदी की शुरुवात मे जब भारत मे चेतना की लहरे
लेने लगी थी तो मनवाधिकारों और मीडिया की आजादी के सवाल को गंभीरता के साथ महसूस
किया जाने लगा था | जैसे –जैसे
ब्रिटिश सरकार ने प्रेस पर दबाव डालने की कोशीश की तो इन कोशिशो का विरोध भी
अंगडाई लेने लगा | सन 1824 ई॰ मे
प्रेस पर अंकुश लगाने वाले एक कानून के खिलाफ राजा राममोहन राय ने सूप्रीम कोर्ट
को एक ज्ञापन भेजा ,जिसमे
उन्होने लिख की –‘’हर
अच्छे साशक को इस बात की फिक्र होनी चाहिए की वह लोगो को ऐसे साधन उपलब्ध करवाए
जिसके जरिये उन समस्याओ और मामलो की सूचना ,सशन को
जल्द से जल्द मिल सके |
पत्रकारिता
के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा सजा पाने वाले पहले भारतीय थे सुरेन्द्रनाथ बनर्जी |वे
राष्ट्रिय आंदोलन को जन्म देने वाले नेताओ मे से एक थे | श्री
बनर्जी को एक मुकदमे के फैसले के खिलाफ लिखने के लिए दो महीने क कैद की सजा दी
गयी | 1881 मे
मराठी भाषा मे केसरी और अंग्रेजी मे मराठा नाम से दो अखबारो का प्रकाशन शुरू किया
तिलक ने राष्ट्रिय की भावना का प्रचार प्रसार करने का एक और अधभूत तरीका खोजा |
गांधी
जी ने यंग इंडिया मे कुछ लेख लिखे थे | इन
लेखो को लिखने पर ब्रिटिश सरकार ने सन 1992 मे
गांधी जी पर धारा 124 (ए) के तहत
राजद्रोह के आरोप मे मुकदमा चलाया और उन्हे भी बाल गंगाधर तिलक की भांति ही छह साल
की कैद की सजा सुना दी गयी | इस
प्रकार हुमे देखते है की स्वतंत्रता –पूर्व
की भारतीय पत्रकारिता ने अपनी शक्ति का प्रयोग ,जनता क
शिक्षित करने ,उसमे
राजनैतिक व राष्ट्रिय चेतना जगाने और आम जनता को प्रेरित व प्रोतशाहित करने मे
ककिया |
संसद के विशेषाधिकार और मीडिया
चूकि विधायिका और मीडिया दोनों
का ही सरोकार लोकहित से जुड़े है ,इसीलिए
विधायिका और मीडिया का बहुत गहरा अंतरसंबंध है ।
जब
रिपोर्टर विधायिका का रिपोर्टिंग करता है ,तो
उसको संसद के विशेषाधिकार को ध्यान में रखकर रिपोर्टिंग करना चाहिए। अभिप्राय संसद
और विधान सभाओं दोनों से है।
हालांकि पहले कई देशों में
संसदीय कार्यवाही के दौरान रिपोर्टिंग वर्जित था
विधायिका महत्व को
समझ लिया है,इसलिए आज अधिकतर लोकतांत्रिक
राष्ट्रों में संसदीयकार्यवाही के प्रकाशन और प्रसारण संबंधी कोई प्रतिबन्ध नहीं
है | भारत में भी सत्र के दौरान संसद
में चलने वाली कार्यवाही का सीधा प्रसारण ,प्रसार
भारती के दिल्ली दूरदर्शन द्वारा किया जाता है
विशेषाधिकार :- विशेषाधिकार का सीधा सा अर्थ है
,किसी व्यक्ति वर्ग या समुदाय को
सामान्य से अलग कुछ असामान्य अधिकार प्राप्त होना |ऐसे
अधिकार विशेषाधिकार के अंतर्गत आता है क्योकिं ये अधिकार आम लोगों को प्राप्त नहीं
होते है |ये अधिकार कुछ विशेष लोगों को
विशेष होने के कारण जो अधिकार मिलते है विशेषाधिकार है |
संसदीय
विशेषाधिकार :- आम लोग
संसदीय विशेषाधिकार का अर्थ ,संसद
के विशेषाधिकारों से लेते है लेकिन तकनिकी रूप से ऐसा नहीं है ।जैसा की हम जानते
है की संसद में लोक सभा,राज्य सभा के साथ-साथ
महामहिम राष्ट्रपति भी समाहित होते है ।भारतीय संविधान में जिन विशेषाधिकारों को
वर्णित किया गया है वे विशेषाधिकार केवल दोनों सदनों ,उनकी
समितियां को और उनके सदस्यों को ही प्राप्त है ।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 105 संसद
और 194 विधान्मंदलों के विशेषाधिकारों
का वर्णन किया गया है।एवं 105(३) में
सांसद की शक्तियों 194(3) में
विधायकों के शक्तियों (विशेषाधिकार) को
बताया गया है ।
भारतीय संविधान में यह कहा गया
है की जब तक संसद या विधानमंडल ऐसा
कोई कानून नहीं बनाती तब तक सदस्यों की शक्तियों और विशेषाधिकार के मामले में
स्थिति वही रहेगी जो “हाउस ऑफ़ कामंस” की थी |अभी तक
कानून बनाकर विशेषाधिकार को प्रभावित नहीं किया गया |जैसा
की हम जानते है की ब्रिटेन में कोई लिखित संविधान नहीं है इसलिए २६ जनवरी 1950 को
वहां विशेषाधिकार की क्या स्थिति थी ,इसे
सहिंता बद्ध या लीपिबद्ध नहीं किया गया है ।
भारत के भूतपूर्व मुख्य
न्यायाधीश और बाद में भारत के उपराष्ट्रपति (सभापति) बने
न्यायमूर्ति एम.हिदायतुल्ला ने संसदीय
विशेषाधिकारों के संबंध में निम्नलिखित निष्कर्ष दिए:-
संसद
को अपने विशेषाधिकारों का निर्णय करने का पूर्ण अधिकार है |
विशेषाधिकारों का विस्तार क्या हो और इनका प्रयोग सदन के भीतर कब किया जाये इस
बारे में भी अंतिम निर्णय संसद का ही होगा |
अपनी
अवमानना के लिए दोषी व्यक्ति को सजा देने का अधिकार भी संसद को ही है |संसद
ही यह फैसला कर सकती है की अवमानना क्या है |
संसद
को जुर्माना लगाने का अधिकार है |
संसद,सत्र
के दौरान किसी व्यक्ति को नजरबन्द तो कर सकती है
लेकिन सत्रावसान के तुरंत बाद नजरबंद व्यक्ति को छोड़ना होगा |
संसद
या विधानमंडल न्यायलयों द्वारा भेजे गए सम्मनों को स्वीकार करेंगे और आवश्यकता
पड़ने पर सुनवाई के दौरान अपने प्रतिनिधि भेजेंगे|
सदन के
माननीय सदस्यों को सत्र के दौरान किसी दीवानी मामलों में गिरफ्तार नहीं किया जा
सकता लेकिन अन्य प्रकार के मामलों में उन्हें सत्र के दौरान भी गिरफ्तार किया जा
सकता है |
संविधान प्रदत्त संसदीय
विशेषाधिकार और उन्मुक्तियां
संविधान के अनुच्छेद 105 के
अंतर्गत संसद सदस्य को और अनुच्छेद 194 के
अंतर्गत राज्यों की विधान सभा के सदस्यों को एक समान संसदीय विशेषाधिकार प्राप्त
हैं।
अनुच्छेद 105(1)
एवं 194(1) के अनुसार, प्रत्येक
सदस्य को संसद में वाक् स्वातंत्र्य प्राप्त होगा किंतु यह स्वतंत्रता इस संविधान
के प्रावधानों तथा संसद की प्रक्रिया का विनियमन करने वाले नियमों और आदेशों के
अधीन होगी।
सदन में किसी सदस्य के द्वारा
कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरुद्ध किसी न्यायालय में
कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी और सदन के प्राधिकार के अधीन प्रकाशित किसी प्रतिवेदन, पत्र, मतों
या कार्यवाहियों के प्रकाशन के संबंध में भी कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी।
अनुच्छेद 105(3)
एवं 194(3) के अनुसार, अन्य
मामलों में सभी विशेषाधिकार औेर उन्मुक्तियां वही होंगी जो संविधान (44वां
संशोधन) अधिनियम, 1978 के
पूर्व थीं, किंतु पूर्व में इस विषय पर कोई
लिपिबद्ध संहिता नहीं है। अतः शेष विशेषाधिकार परंपरानुसार नियत होते हैं।
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की
धारा 135 क (1.2.1977
से लागू) के अनुसार, सदन के
चालू रहने के दौरान या किसी अधिवेशन या बैठक या सम्मेलन के 40 दिन
पूर्व या पश्चात किसी सदस्य को किसी सिविल आदेशिका के अधीन गिरफ्तार या निरुद्ध
नहीं किया जा सकता है।
सरकारी कर्मचारी-अधिकारी
और मीडिया
भारतीय संविधान में प्रत्येक
भारतीय नागरिक को अभिव्यक्ति की आज़ादी का मूल अधिकार दिया गया है| मीडिया
और प्रेस के सन्दर्भ में सरकारी सेवारत व्यक्तियों
को कई नियमों का पालन करना होता है |सरकारी
सेवारत व्यक्ति और मीडिया के सन्दर्भ
में अलग से कोई अधीनियम तो नहीं है लेकिन सरकार द्वारा समय-समय पर
जरी किये आदेशों और विभिन्न कानूनों में इस सन्दर्भ में दिए गये प्रावधानों की
रोशनी में ही सरकारी कर्मचारियों व अधिकारीयों को मीडिया से संबंधित कार्य करने
पड़ते है |
भारत सरकार द्वारा केन्द्रीय
सिविल सेवक नियम बनाये गए है ,जिसमें
बता गया है
की किसी सिविल सेवक को किस प्रकार
का व्यवहार या आचरण करना चाहिए |
1. सरकार
के बिना पूर्वानुमति के कोई सरकारी सेवक,पुर्णतः
या अंशतः न तो किसी समाचार-पत्र
आवधिक प्रकाशन का स्वामी हो सकता है और न ही
वह उसका प्रबंधक हो सकता है |वह ऐसे
प्रकाशनों का संपादन भी बीना नहीं कर सकता है |
2. अपनी
सरकारी जिम्मेदारियों के अलावा कोई भी सरकारी सेवक,सरकार
या प्राधिकृत अधिकारी के पूर्वानुमति के बिना निम्नलिखित कृत्य नहीं ककर सकता :
(क)स्वयं
या किसी प्रकाशक के द्वारा पुस्तक का प्रकाशन
(ख) किसी
पुस्तक के लिए कोई लेख आदि लिखना अथवा लेखों को संकलित/सम्पादित
करना ;
(ग) रेडियो
प्रसारण में भाग लेना ;
(घ) अपने
स्वयं के नाम,किसी दूसरे के नाम या किसी अन्य
नाम से या फिर किसी और व्यक्ती के नाम से
किसी समाचार पत्र या आवधिक प्रकाशन के लिए लेख,पत्र
आदि लिखना |
3. मीडिया
संबंधी निम्नलिखित कृतियों के लिए सरकारी सेवक
को सरकार से अनुमति /पूर्वानुमति
लेने की आवश्यकता नहीं है :-
(क)यदि
पुस्तक आदि का प्रकाशन,किसी प्रकाशक के द्वारा होता है
और पुस्तक की सामग्री,वैज्ञानिक,कलात्मक
या साहित्यिक प्रकार की है |
(ख) यदि
रेडियो आदि पर प्रसारण अथवा समाचार-पत्र
आदि के लिए लिखे गए लेख आदि पूर्णतः
साहित्यिक ,वैज्ञानिक या कलात्मक प्रकार के
हों|
भारत सरकार के संबंधित निर्णय
:
1.आल
इंडिया रेडियो में भाग लेने और इसके बदले में शुल्क प्राप्त करने के लिए अनुमति
लेने की आवश्यकता नहीं है | (भारत सरकार,गृह
मंत्रालय,कार्यालय ज्ञापन संख्या 25/32/56
(ए),15 जनवरी 1957)
2. मीडिया
संबंधी कोई कृत्य को सम्पादित करने के लिए
यदि सरकारी सेवक अपने प्राधिकृत अधिकारी से
अनुरोध करता है और उसे अगले 30 दिन तक
कोई जवाब नहीं मिलता है तो अनुमति मानी जाएगी|(भारत
सरकार,व्यैक्तिक और प्रशिक्षण विभाग,कार्यालय
ज्ञापन संख्या 11013/2/88 (ए),दिनांक
7 जुलाई,1988 एवं 30 दिसम्बर
1988)
भारत सरकार का संबंधित निर्णय
कोई भी
सरकारी सेवक अपने विदेश यात्रा के दौरान भारतीय या विदेशी
संबंधों पर किसी मौखिक या लिखित
बयान के द्वारा टिप्पणी नहीं कर सकता उसे
संबंधित राजदूत की लिखित पूर्वानुमति पर किया
जा सकता है |(भारत
सरकार,गृह मंत्रालय,कार्यालय
ज्ञापन संख्या 25/71/51 दिनांक 17 अक्टूबर,1951)
न्ययालय की अवमानना और मीडिया
जैसा की हमलोगों को ज्ञात है की
भारतीय संविधान के अनुसार न्यायपालिका को स्वतंत्र रखा गया
है,जो संघ और राज्य की विधियों को
देख-रेख करने का काम करती है | इस
पूरी प्रणाली के शीर्ष पर भारत का सर्वोच्च न्यायालय है |
न्यायपालिका और मीडिया के बिच
गहरा संबध है | अख़बारों के अधिकांशतः जगह और
टेलीविजन समाचार चैनलों के अधिकांश समय पर अपराध से संबंधित समचार ही कब्ज़ा
जमाये रखता है | किसी अपराध का अंतिम निर्णय
न्यायालय में ही होता है ,इसीलिए पत्रकारों को अक्सर
न्यायालयों से रिपोर्टिंग करनी पड़ती है | न्यायालय
रिपोर्टिंग करते समय बड़ा ही सावधानी
बरतना पड़ता है कारण की थोडा सा भी अचूक
होते ही न्यायालय अवमानना की तलवार मीडिया कर्मी पर लटक जाता है |
न्यायालय
अवमानना
अदालत की अवमानना के मामले में
इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि आपका इरादा अवमानना करने का था या नहीं. जब कोई
मामला अदालत में चल रहा हो तो रिपोर्टिंग पर कई तरह की पाबंदियाँ लगी हो सकती हैं, जिनमें
से कुछ अपने-आप लागू होती हैं और कुछ अदालत
के निर्देश पर लगाई जाती हैं.
न्यायालय अवमानना अधिनियम, 1971 के
अंतर्गत है| अधिनियम की धारा 2 (ए) (बी) और (सी) में
बताया गया है,
ए दीवानी या फ़ौजदारी दोनों तरह
से कोर्ट की अवमानना हो सकती है.
बी यदि
किसी न्यायालय के निर्णय/डिक्री/आदेश/निर्देश/ याचिका
अथवा न्यायालय की किसी प्रक्रिया का जानबूझकर उल्लंघन किया जाए या न्यायालय द्वारा
दिए गए किसी वचन को जानबूझकर कर भंग किया जाए, तो यह
न्यायालय की दीवानी अवमानना होगी.
सी
किसी प्रकाशन, चाहे वह मौखिक/लिखित/सांकेतिक
या किसी अभिवेदन या अन्य किसी कृत्य द्वारा,बदनाम
या बदनाम करने की कोशिश या अभिकरण/न्यायालय
को नीचा दिखाने की कोशिश की जाए.
किसी
न्यायिक प्रक्रिया में पक्षपात या हस्तक्षेप
न्यायिक
व्यवस्था में किसी प्रकार के हस्तक्षेप या उसे बाधित करना/ बाधित
करने की कोशिश करना न्यायालय की अवमानना हो सकती है.
समाचार पत्र- पत्रिकाओं
का पंजीकरण
भारत में छपने तथा प्रकाशित
होने वाले समाचारपत्र एवं आवधिक प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम, 1867 तथा
समाचारपत्रों के पंजीकरण(केन्द्रीय) नियम, 1956 द्वारा
नियंत्रित होते हैं ।
अधिनियम के अनुसार, किसी
भी समाचार पत्र अथवा आवधिक का शीर्षक उसी भाषा या उसी राज्य में पहले से प्रकाशित
हो रहे किसी अन्य समाचारपत्र या आवधिक के समान या मिलता‑जुलता
न हो, जब तक कि उस शीर्षक का स्वामित्व
उसी व्यक्ति के पास न हो ।
इस शर्त के अनुपालन को सुनिश्चित
करने के लिए ,भारत
सरकार ने समाचारपत्रों का पंजीयक नियुक्त किया है , जिन्हें
प्रेस पंजीयक भी कहा जाता है, जो
भारत में प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों एवं आवधिकों की पंजिका का रख‑ रखाव
करते हैं ।
भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक
का कार्यालय का मुख्यालय नई दिल्ली में है तथा देश के सभी क्षेत्रों की जरूरतों
को पूरा करने के लिए कोलकाता,मुंबई
तथा चेन्नई में तीन क्षेत्रीय कार्यालय भी हैं ।
समाचार पत्र के प्रथम अंक के
प्रकाशन के बाद, आर.एन.आई. से
समाचारपत्र को पंजीकरण प्रमाणपत्र जारी करने का अनुरोध अवश्य किया जाना चाहिए ।
समाचार पत्रों/पत्रिकाओं के पंजीकरण के लिए
जांच सूची/दिशा निर्देश निम्नलिखित
हैं :
1. आवश्यक
दस्तावेज
(क) आर.एन.आई. द्वारा
जारी शीर्षक सत्यापन पत्र की फोटोकापी ।
(ख) डी.एम./ए.डी एम/डी सी
पी/सी एम एम/एस डी
एम द्वारा प्रपत्र‑। में निर्दिष्ट(देखें
नियम‑3) प्रमाणीकृत घोषणा की सत्यापित
प्रति ।
(ग) प्रथम
अंक में खंड‑1 और अंक‑1 का उल्लेख
करें !
(घ) निर्धारित
प्रपत्र में ‘ कोई विदेशी
बंधन नहीं ‘ के लिए
प्रकाशक का शपथ पत्र(देखें
परिशिष्ट‑IV) ।
2. यदि
मुद्रक और प्रकाशक भिन्न हों तो अलग घोषणा दाखिल करनी होगी ।
3. प्रथम
अंक में स्पष्ट रूप से खंड‑। और
अंक‑1, दिनांक‑रेखा,पृष्ठसंख्या
और प्रकाशन के शीर्षक का उल्लेख होना चाहिए ।
4. घोषणा
के प्रमाणीकरण की तिथि से छह सप्ताह की अवधि के भीतर (दैनिक/साप्ताहिक
के लिए) और तीन महीने के भीतर(अन्य
अवधियों वाले प्रकाशनों के लिए) प्रकाशन
प्रकाशित हो जाना चाहिए ।
5. इंम्प्रिंट
लाइन में(क) प्रकाशक
का नाम(ख) मुद्रक
का नाम,(ग) स्वामी
का नाम,(घ) मुद्रणालय
का नाम व पूरा पता,(ड.) प्रकाशन
का स्थान व पता,और (च) सम्पादक
का नाम शामिल होना चाहिए ।
2.11.2
यदि उचित जांच पड़ताल के पश्चात आवेदन संतोषजनक पाया जाता है तो प्रेस
पंजीयक अपने यहां रखे गए रजिस्टर में समाचार पत्र के विवरण दर्ज करेगा और
प्रकाशक को पंजीकरण प्रमाण पत्र जारी करेगा ।
पुस्तकों का पंजीकरण
परिभाषा :-
सन 1950 में
यूनेस्कों ने एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें पुस्तक को परिभाषित किया गया था | ऐसी
साहित्यिक प्रकाशन ,जिसमें कवर को छोड़कर 49 या
इससे अधिक पृष्ठों और वह पत्रिका न हो पुस्तक कहलायेगा|
इतिहास :
भारतीय भाषाओ में पुस्तकों का
छपना,सन 1800 में
प्रारंभ हुआ था | अगस्त 1800 में
मंगल समाचार तथा मतियेर द्वारा लिखित एक बंगला पुस्तक का प्रकाशन हुआ |हिंदी
की पहली पुस्तक 1802 में,फोर्ट
विलियम कालेज ,कलकता द्वारा हरकारु प्रेस
कलकता में मुद्रित हुई|
नोट:आजकल
भारत में पुस्तकों के पंजीकरण में प्रेस और पुस्तक
पंजीकरण अधिनियम लागु होते है |
प्रेस
और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम ,1867
जैसा
कि हम सब जानते है की भारत में आज अधिकांश कानून ब्रिटिश के समय के कानून के आधार
पर ही चलते है ,कुछ संशोधन के साथ |उसी
तरह प्रेस एवं पुस्तक पंजीकरण अधिनियम 1867 में ही
ब्रिटिश हुकूमत के द्वारा लाया गया था |
अधिनियम
के प्रावधानों के अनुसार ‘भारत के समाचार पत्रों के
पंजीयक के कार्यालय में आवेदन पत्र की जाँच की जाती है और यदि वह नियमानुसार होता
है तथा आवेदन में प्रस्तावित कोई शीर्षक ,उपलब्ध
होता है (अर्थात वह शीर्षक किसी अन्य के
नाम से पंजीकृत नहीं होता है ) तो
आवेदक के शीर्षक को उसके नाम से पंजीकृत करके वह शीर्षक को आवंटित कर दिया जाता है
|
अधिनियम
के अनुसार पत्र का प्रकाशन करने से पूर्व प्रकाशक को एक घोषणा-पत्र
निर्धारित प्रारूप में सक्षम मजिस्ट्रेट के सम्मुख प्रस्तुत करना होता है | इस
घोसणा पत्र में पत्र के संपादक ,प्रकाशक
और मुद्रक का नाम तथा पत्र के मुद्रण व प्रकाशन के स्थानों (पतों) की
जानकारी देना भी अनिवार्य होता है|
भारत
में छपने तथा प्रकाशित होने वाले समाचारपत्र एवं आवधिक प्रेस एवं पुस्तक
पंजीकरण अधिनियम, 1867 तथा
समाचारपत्रों के पंजीकरण(केन्द्रीय) नियम, 1956 द्वारा
नियंत्रित होते हैं ।
अधिनियम
के अनुसार, किसी भी समाचार पत्र अथवा आवधिक
का शीर्षक उसी भाषा या उसी राज्य में पहले से प्रकाशित हो रहे किसी अन्य
समाचारपत्र या आवधिक के समान या मिलता‑जुलता
न हो, जब तक कि उस शीर्षक का स्वामित्व
उसी व्यक्ति के पास न हो ।
इस
शर्त के अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए ,भारत
सरकार ने समाचारपत्रों का पंजीयक नियुक्त किया है , जिन्हें
प्रेस पंजीयक भी कहा जाता है, जो
भारत में प्रकाशित होने वाले समाचारपत्रों एवं आवधिकों की पंजिका का रख-रखाव
करते हैं ।
भारत
के समाचारपत्रों के पंजीयक का कार्यालय का मुख्यालय नई दिल्ली में है तथा देश
के सभी क्षेत्रों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कोलकाता,मुंबई
तथा चेन्नई में तीन क्षेत्रीय कार्यालय भी हैं । प्रेस
एवं पुस्तक पंजीकरण
अधिनियम के अनुसार, मुद्रक
एवं प्रकाशक को जिला/महाप्रांत/उप‑प्रखण्ड
दण्डाधिकारी के समक्ष घोषणा करनी होती है , जिसके
स्थानीय अधिकारक्षेत्र के अधीन समाचारपत्र मुद्रित अथवा प्रकाशित किया जाएगा, कि वह
उक्त समाचारपत्र का मुद्रक/प्रकाशक
है ।
घोषणा पत्र में समाचारपत्र
संबंधी सभी विवरण शामिल होने चाहिए , जैसे
कि किस भाषा में प्रकाशित होगा ,प्रकाशन
का स्थान इत्यादि । समाचारपत्र के प्रकाशन से पहले दण्डाधिकारी द्वारा घोषणा
पत्र को अधिप्रमाणित किया जाना चाहिए ।
अधिप्रमाणन से पहले , दण्डाधिकारी
समाचारपत्रों के पंजीयक से छानबीन करने के बाद यह पुष्टि करता है कि प्रेस एवं
पुस्तक पंजीकरण अधिनियम की धारा 6 में
उल्लिखित शर्तों का पालन हो रहा है ।
मानहानि:
प्रकार और क़ानूनी प्रावधान
मानहानि की परिभाषा ( 1963) :
किसी व्यक्ति, व्यापार, उत्पाद, समूह, सरकार, धर्म
या राष्ट्र के प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने वाला असत्य कथन मानहानि (Defamation) कहलाता
है। अधिकांश न्यायप्रणालियों में मानहानि के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही के प्रावधान
हैं ताकि लोग विभिन्न प्रकार की मानहानियाँ तथा आधारहीन आलोचना अच्ची तरह सोच
विचार कर ही करें।
मानहानि असल में वो प्रभाव है
जो किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति की आधारहीन आलोचना करने उसके बारे में
गलत धारणा बिना किसी पुख्ता आधार के समाज में पेश करना से व्यक्ति की छवि पर पड़ता
है और इसके लिए जिस व्यक्ति के बारे में भ्रामक बातें कही जा रही है वो व्यक्ति
न्यायालय में अपने खिलाफ हो रहे दुष्प्रचार के खिलाड़ उसकी छवि को जो नुकसान पहुंचा
है उसकी भरपाई के लिए मुकदमा कर सकता है |
परिचय :
मानहानि दो रूपों में हो सकती
है- लिखित रूप में या मौखिक रूप
में। यदि किसी के विरुद्ध प्रकाशितरूप में या लिखितरूप में झूठा आरोप लगाया जाता
है या उसका अपमान किया जाता है तो यह "अपलेख"
कहलाता है। जब किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई अपमानजनक कथन या भाषण किया जाता
है। जिसे सुनकर लोगों के मन में व्यक्ति विशेष के प्रति घृणा या अपमान उत्पन्न हो
तो वह "अपवचन"
कहलाता है।
मानहानि करने वाले व्यक्ति पर
दीवानी और फौजदारी मुकदमें चलाए जा सकते हैं। जिसमें दो वर्ष की साधारण कैद अथवा
जुर्माना या दोनों सजाएँ हो सकती हैं।
सार्वजनिक हित के अतिरिक्त
न्यायालय की कार्यवाही की मूल सत्य-प्रतिलिपि
मानहानि नही मानी जाती। न्यायाधीशों के निर्णय व गुण-दोष
दोनों पर अथवा किसी गवाह या गुमास्ते आदि के मामले में सदभावनापूर्वक विचार प्रकट
करना मानहानि नही कहलाती है। लेकिन इसके साथ ही यह आवश्यक है कि इस प्रकार की
टिप्पणियाँ या राय न्यायालय का निर्णय होने के बाद ही दिये जाने चाहिएँ।
सार्वजनिक हित में संस्था या
व्यक्ति पर टिप्पणी भी की जा सकती है या किसी भी बात का प्रकाशन किया जा सकता है।
लेकिन यह ध्यान रखा जाये कि अवसर पड़ने पर बात की पुष्टि की जा सके। कानून का यह
वर्तमानरूप ही पत्रकारों के लिए आतंक का विषय है।
अधिकांश मामलों में बचाव इस
प्रकार हो सकता है
1- कथन की
सत्यता का प्रमाण।
2- विशेषाधिकार
तथा
3- निष्पक्ष
टिप्पणी तथा आलोचना।
यदि
किये गये कथनों का प्रमाण हो हो तो अच्छा बचाव होता है। विशेषाधिकार सदैव
अनुबन्धित और सीमित होता है। समाचारपत्रों का यह विशेषाधिकार विधायकों आर
न्यायालयों को भी प्राप्त होता है। अतः कहने का तात्पर्य यह है कि आलोचना का विषय
सार्वजनिक हित का होना चाहिएऔर स्पष्टरूप से कहे गये तथ्यों का बुद्धिवादी
मूल्यांकन होने के साथ-साथ यह
पूर्वाग्रह से भी परे होना चाहिए।
मानहानि की दशा में सजा के
प्रावधान :
इसके
लिए भारतीय कानून के अनुसार दो धाराएँ है जो इसे समझाती है और वो है IPC यानि
इंडियन पेनेल कोड (Indian Penal Code) के
अनुसार धारा 499 और धारा 500 के
अनुसार मानहानि के अपराध में दोषी पाये जाने पर दोषी को दो साल तक की सजा हो सकती
है
उदाहरण:
हालाँकि भारतीय परिवेश में
सामान्य तौर पर यह एक कम ही सामने आने वाला मुद्दा है क्योंकि इस तरह की शिकायतों
को स्थानीय लोग अपने स्तर पर सुधार लेते है और अगर ऐसा होता भी है कि कोई व्यक्ति
मानहानि का दावा करता है तो विशेष परिस्थिति को छोड़कर सामान्यत यह साबित करने में
बहुत वक़्त जाया होता है कि टिप्पणी करने वाला सही है या उसके पीछे कोई आधार भी है
लेकिन आप अगर भारतीय राजनीती की बात करे तो कई तरह के ऐसे मामले है जो चर्चित रहे
है | उसमे
से एक है – मशहूर
राजनीतिज्ञ सुभ्रमन्यम स्वामी के खिलाफ तमिलनाडु की सरकार ने मानहानि के पांच
मामले कोर्ट में दायर किये थे जिन पर सुप्रीम कोर्ट ने बाद में रोक लगा दी थी और
उन पर आरोप ये था कि उन्होंने मुख्यमंत्री के खिलाफ सोशल साइट्स पर अपमानजनक
टिप्पणियाँ की थी |
अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल
विषय: प्रेस और आचार संहिता
कक्षा- स्नातक पत्रकारिता (चतुर्थ सेमेस्टर)
छात्र: जितेश कुमार
प्रेस कानून