शनिवार, 31 मार्च 2018

"भारत की सुरक्षा: मीडिया की जिम्मेदारी" थीम पर आधारित
मीडिया महोत्सव कल से शुरू होने जा रही है, यह महोत्सव 31 मार्च से 1 अप्रेल तक मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रोधोगिकी परिषद् के परिसर में होगा| इस दो दिवसीय मीडिया महोत्सव में विभिन्न विषयों पर अलग-अलग सत्रों में मीडिया के दिग्जजों और विषय विशेषज्ञ के द्वारा तमाम समसामयिक सुरक्षा, आंतरिक और बाह्य सुरक्षा, महिला सुरक्षा, साइबर तकनीकी जैसे विषयों पर सार्थक विमर्श होंगे| जिसमें मीडिया के कार्य करने के तौर-तरीके का भी मूल्यांकन और समझाईस पर चर्चा होगी| देश में बढ़ रहे, सांप्रदायिक तनाव और मीडिया की रवैया के विषयों को प्रमुखता से उठाये जायेंगे| जातीय-मजहबी और राजनीती दलों के तनाव से मीडियाकर्मी को उभरने की तमाम पहलुओ पर चर्चा की जाएगी| डिजिटल और प्रिंट मीडिया में नीतिगत खबरों को प्रेषित करनें को लेकर भी विमर्श होंगे| इसके साथ आधुनिक तकनीकी मीडिया (न्यू मीडिया) के उपयोगों के मूल्यांकन के साथ उसे सुरक्षित बनाने पर चर्चा की जाएगी| इस महोत्सव में देश भर के विभन्न माध्यमों उपस्थित संचारकर्मी होंगे| मीडिया सशक्तिकरण और मीडिया का राष्ट्रीयकरण, भारतीयकरण और संस्कृति उत्थान, राष्ट्रीय सुरक्षा, महिला और बच्चों की सुरक्षा जैसे मुद्दों पर चर्चा और निष्कर्ष होंगे| महोत्सव में पूरे देश भर से आये हुए पत्रकारिता से  अध्यनशील विद्यार्थी भी भाग लेंगे|   

शुक्रवार, 16 मार्च 2018

तुम्हारे ही रूपों में तुमसे ईश्वर साक्षात्कार करते! - संत कवीर

संत कबीर जी पेड़ों की झुरमट तले बैठे थे| उनके पास की एक शाखा पर एक पिंजरा टंगा था, जिस में एक मैना पुदक रही थी| बड़ी अनूठी थी, वह मैना| खूब गिटरपिटर मनुष्यों की सी बोली बोल रही थी| कबीर जी भी उससे बातें लड़ा रहे थे| दोनों हँस मैना से कुछ ऊपर पत्तों में छिपकर बैठ गए|
बालगोविंद जी
इतने में, नगर सेठ अपनी पत्नी के साथ कबीर जी के क़दमों में हाज़िर हुआ| मन की भावना रखी - 'महाराज, मेरे सिर के बाल पक चले हैं| घर-गृहस्थी के दायित्व भी पूरे हो गए हैं| सोच रहा हूँ, हमारी सनातन परम्परा के चार आश्रमों में से तीसरी पौड़ी 'वानप्रस्थ' की और बढ चलूँ| एकांत में सुमिरन-भजन करूँ|'कबीर, बिना किसी लाग-लपेट के, एकदम खरा बोले- 'सेठ जी,यूँ वन में इत-उत डोलने से हरि नहीं मिलता!'
सेठ फिर कैसे मिलता है,हरि ? आप बता दें महाराज|
        कबीर फिर मैना से बतियाने लगे - 'मैना रानी, बोल - राम...राम... !' मैना ने दोहराया - 'राम...राम'! कबीर उससे ढेरों बातें करने लगे| सेठ-सेठानी को इतना साफ बोलते देखकर खुश हो रहे थे... कि तभी कबीर उनकी और मुड़े और बोले'जानते हो सेठ जी, मैना को मनुष्यी बोली कैसे सिखाई जाती है? आप उसके सामने खड़े होकर उसे कुछ बोलना सिखाओगे, तो वह कभी नहीं सीखेगी| इसलिए मैंने एक दर्पण लिया और उसकी आड़ में छिपकर बैठ गया| दर्पण के सामने पिंजरा था| मैं दर्पण के पीछे से बोला - 'राम!राम!' मैना ने दर्पण के में अपनी छवि देखी| उसे लगा उसका कोई भाई-बंधु कह रहा है- 'राम!राम!' इसलिए वह भी झट सीख़ और समझ गई| इसी तरह दर्पण की आड़ में मैंने उसे पूरी मनुष्यी बोली सिखाई| और अब देखो, यह कितना फटाफट बोलती है!
         इतना कहकर कबीर ताली बजाकर हँस दिए| फिर इसी मौज मैं, सेठ-सेठानी से सहजता से बोल गए - 'ऐसे ही सेठ जी भगवान कैसे मिलता है, यह तो खुद भगवान ही बता सकता है| लेकिन अगर वह यूँ ही सीधा बताएगा, तो तुम्हारी बुद्धि को समझ नहीं पड़ेगी| इस लिए वह मानव चोले की आड़ में आता है और ब्रह्मज्ञान का सबक सिखाता है -


                  ब्रह्म बोले काया के ओले| 
                 काया बिन ब्रह्म कैसे बोले || 

वह मानव बनकर आता है, मानव को अपनी बात समझाने | उस महामानव को, मनुष्य देह में अवतरित ब्रह्म को ही हम      'सतगुरू' सच्चा गुरु या साधू' कहते हैं |

               निराकार की आरसी,साधों ही की देहि |
              लखा जो चाहै अलख को, इनही में लखि लेहि ||
  
 अर्थात सदगुरू की साकार देह निराकार ब्रह्म का दर्पण है | वो अलख (न दिखाई देने वाला ) प्रभु सच्चे गुरू की देह में प्रत्यक्ष हो आता है |
इस लिए सेठ जी, अगर भगवान को पाना है, तो 'वानप्रस्थ' नहीं! 


          'गुरूप्रस्थ' बनो | सदगुरू के देस चलो चलो -
          चलु कबीर वा देस में, जहँ बैदा सतगुरू होय ||

मंगलवार, 13 मार्च 2018

सूरदास जी के आखरी क्षण!


बालगोविन्द जी 
आखिर सूर के जीवन की शाम ढल आई! सूर गोवर्धन से नीचे उतरकर घाटी मे आ गए और आखिरी साँसे लेने लगे! उधर श्री वल्लभाचार्य जी के सुपुत्र गोस्वामी विटठलनाथ जी ने अपने सभी गुरू-भाइयो और शिष्यो के बीच डुगडुगी बजवा दी- ‘भगवद मार्ग का जहाज अब जाना चाहता है! जिसने आखिरी बार दर्शन करना है, कर लो!’
समाचार मिलते ही जनसमूह सूर की कुटिया तक उमड़ पडा! जिसने अपने कंठ की वीणा को झनका-झनका कर प्रभु-मिलन के गीत सुनाए, आज उसी से बिछुडने की बेला थी! भक्त-ह्र्दय भावुक हो उठे थे! बहुत संभालने पर भी सैकडो आंखो से रुलाइयाँ फूट रही थी! इसी बीच गुरूभाई चतुर्भुजदास जी ने सूर से एक प्रश्न किया- ‘देव, एक जिज्ञासा है! शमन करे!’
सूरदास जी*- कहो भाई!
चतुर्भुजदास जी- देव, आप जीवन भर कृष्ण-माधुरी छलकाते रहे! कृष्ण प्रेम मे पद रचे, कृष्ण-धुन मे ही मंजीरे खनकाए! कृष्ण-कृष्ण करते-करते आप कृष्णमय हो गए! परन्तु…
सूरदास जी- परन्तु क्या, चतुर्भुज..?
चतुर्भुजदास जी- परन्तु आपने अपने और हम सबके गुरुदेव श्री वल्लभाचार्य जी के विषय मे तो कुछ कहा ही नही! गुरू-महिमा मे तो पद ही नही रचे!
यह सुनकर सूर सरसीली-सी आवाज मे बोले-”
अलग पद तो मै तब रचता, जब मै गुरुवर और कृष्ण मे कोई भेद मानता! मेरी दृष्टि मे तो स्वयं कृष्ण ही मुझे कृष्ण से मिलाने ‘वल्लभ ‘ बनकर आए थे!
एसा कहते ही सूर ने आखिरी सांस भरी और जीवन का आखिरी पद गुना! उनकी आंखे वल्लभ-मूर्ति के चरणो मे गडी थी और वे कह रहे थे-

         भरोसो द्रढ इन चरनन केरौ, श्री वल्लभ 
         नखचन्द्र छटा बिनु- सब जग मांझ अन्धेरो!
         साधन और नही या कलि मे जासो होत निबेरौ! 
         सूर कहा कहै द्विविध आंधरौ बिना मोल के चेरौ!!

मुझे केवल एक आस, एक विश्वास, एक द्रढ भरोसा रहा-और वह इन(गुरू) चरणो का ही रहा! श्री वल्लभ न आते, तो सूर सूर न होता! उनके श्री नखो की चाँदनी छटा के बिना मेरा सारा संसार घोर अंधेरे मे समाया रहता! मेरे भाइयो,
इस कलीकाल मे पूर्ण गुरू के बिना कोई साधन, कोई चारा नही, जिसके द्वारा जीवन-नौका पार लग सके!
सूर आज अंतिम घडी मे कहता है कि मेरे जीवन का बाहरी और भीतरी-
दोनो तरह का अंधेरा मेरे गुरू वल्लभ ने ही हटाया! वरना मेरी क्या बिसात थी? मै तो उनका बिना मोल का चेरा भर रहा!

शुक्रवार, 9 मार्च 2018

राजनीति का अध्यात्मीकरण! -

प्राचीन समय में जिस भारतवर्ष का क्षेत्रफल असीमित रहा।
JITESH RAJPOOT (हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल)
जिसने संपूर्ण विश्व को अपना परिवार माना, मार्गदर्शन दिया। जिस भारतवर्ष का वेद 'वसुधैव कुटुंबकम' की भावनाओं से वशीभूत है । जिन्होंने विश्व को 'कृणवंतो विश्वमार्यम्' का पाठ पढ़ाया हो । जो भूतकाल में विश्वगुरु था । आज के अमेरिका की तरह नहीं जो विश्व समाज का अपहरण करता हो ।भारत संस्कृति ने एक ऐसा विश्व सरकार बनाने की कल्पना की थी । जिसमें संसार के अविकसित, विकासशील और विकसित राष्ट्रों के मध्य की दूरियां को समाप्त किया जाए । कहीं भी भूख, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी न हो । विश्व के सभी संसाधनों पर सब का अधिकार हो । उनका बंटवारा समानता के आधार पर सभी में न्यायपूर्ण ढंग से किया जाए । परन्तु खंड-खंड राष्ट्रीयता में विभाजित मानवता कभी भी विश्व शांति ला नहीं सकती। विश्व को एक सूत से बांधने के लिए अध्यात्म की स्थापना आवश्यक हैं । भारतीय संस्कृतिक, वेदों, खगोल शास्त्र, चिकित्सा पद्धियों का मार्गदर्शन कर, आज अमेरिका, रूस, जापान आगे बढ़ गए । आज इसी भारतवर्ष में अध्यात्मवाद के लिए कोई जगह नहीं बची । इतना महान और प्राचीनतम देश की संस्कृतिक कहीं खो गई । वर्तमान में देश की राजनीति अपने मार्ग से भटक चुकी है । राजनीतिक चूंकि सभी धर्मों से सबसे प्रमुख धर्म है । इसलिए राजनीति का अध्यात्मीकरण आज के युगन आवश्यकता है । जब तक राजनीति का अध्यात्मिकरण संभव नहीं होगा । तब तक भारत ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व गरीबी, भ्रष्टाचार, संप्रदायिकता, जातिवाद, लोभ, भय, जाति-मजहब और आतंकवाद से बाहर नहीं निकल पाएगा । हमें विदेशी व्यवस्था नहीं । बल्कि भारतीय सांस्कृतिक व्यवस्था को आधुनिक युग में लाने की आवश्यकता है । भारतीय संस्कृतिक आधारित आज हमारी राजनीति पहचान, लोभ के कुचक्र में फंस कर भ्रमित हो गई है । विनाश के द्वार पर खड़ी है, अतः स्वार्थ की राजनीति का त्याग कर  आध्यात्म राजनीति की आवश्यकता है । व्यक्तिगत हित नहीं राष्ट्र हित में मतदान करे, आपना जनप्रतिनीधि योग्य और चरितार्थ खोजे |
वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने विश्व को पुनः अध्यात्म, योग से जोड़ने का प्रयास किया । उनके प्रयास को नकारा नहीं जा सकता हैं । परंतु इस क्षेत्र में और कार्य करने की जरूरत है । 

स्वयं समाज को आगे आने की आवश्यकता है । भ्रष्टाचार, घोटाले और लोभ का त्याग कर । भारत को पुनरुत्थान की ओर अग्रसर करने का दायित्व प्रत्येक भारतीय का है । विदेशी नीतियों से भारत को नहीं  देखा जा सकता। राजनीति को समर्पण और अध्यात्म की नज़र से देखने की आवश्यकता हैं । तभी यह भारतवर्ष महानता के शीर्ष पर खड़ा होकर, भारतीय संस्कृति का गुणगान पायेगा । समग्र विश्व के कल्याण के लिए, स्वयं भारत के कल्याण हेतु । भारतीय राजनीति को ऊपर उठाना होगा । आज समग्र विश्व आतंकवाद, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता, जैसे कुप्रभावों के चंगुल में फंसा हुआ  है । आज दुनिया भारत की ओर टकटकी लगा कर देख रही है । क्योंकि! भारत ही एकमात्र  सांस्कृतिक रूप से पूर्ण राष्ट्र है । जिसके वेद-पुराण, गीता, रामायण जैसे महाकाव्य विश्व कल्याण और विश्व बन्धु का  ज्ञान देता है । भारत ही एकमात्र राष्ट्र है । जिसके वैदिक परंपरा -

                                         सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः I 
                                         सर्वेभद्राणि पश्यन्तु मां कश्चिदुःखभागभवेत ||

पर आधारित है । जो संपूर्ण विश्व के सभी धर्मों के मंगल कल्याण हेतु प्रात: प्रार्थनार्थ रहा है । आधुनिक समय के महान धर्म प्रचारक विवेकानन्द । जिनके कृत्यों हमेशा स्मरणीय रहेंगे, अद्भुत है । जिन्होंने भारतीय संस्कृति के विशालतम रूप से दुनिया को परिचय कराया । शिकांगो के धर्म सभा सम्मेलन में आज भी विवेकानंद जी वाणी गूंजती है । भारत की जिजीविषा और जीवंतता को विवेकानंद ने संपूर्ण विश्व के सामने रखा । दुनिया लालायित हो उठी थी । भारतीय सभ्यता को देखने और समझने के लिए । परंतु हमलोगों ने अपने पूर्वजों के प्रति और उनके गौरवमयी कृत्यों के प्रति इतना ज्ञान नहीं हुआ, जितना अपेक्षित था । भारतीय की मानसिकता के इस निराशजनक पक्ष ने, हमें अपने ही विषय में जानने-समझने और विचार करने से निषिद्ध किया है । 
हमने कभी भी इन वाक्यों को ध्यान से पढ़ा ही नहीं -


                                          कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ।
                                          सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा ।।


आज दुःख तो इस बात है कि उस 'कुछ बात' को स्वयं हमने ही कभी नहीं समझा या समझने का प्रयास किया ।  समाज में अपने ही प्रति व्याप्त निराशा का यह दुर्बलत्म पक्ष हमारे लिए अभिशाप है । जिसके कारण आज की राजनीति हमें भयंकर विनाश की ओर ले जा रही हैं । आज भारत सांप्रदायिकता, गरीबी, भ्रष्टाचारी, के कुचक्र में फंसा हुआ है । इसे स्वयं और विश्वपरिवार से लिए आगे उठाना होगा । जिसके लिए सर्वप्रथम इसकी राजनीति को शुद्ध होना पड़ेगा । जिसका उपाय आध्यात्मिककरण है ।


                                                                                                                             

शुक्रवार, 2 मार्च 2018

यह फागुन भी चला गया। - गणिनाथ सहनी

यह फागुन भी चला गया               
कुछ रंग के छिटे डाल के
हरा, बैगनी, लाल, गुलाबी
पीला रंग कमाल के।
यह फागुन भी चला गया
कुछ रंग के छिटे डाल के।

सोचा था सराबोर करेंगे
सर से लेकर पाँव तक
खूब मनेगी होली अबकी
शहर से लेकर गाँव तक।

लेकिन वो दुबके हीं रह गए
अपने घर के कोने में
और हो गई शाम तो हम भी
रंग लग गए धोने में।

शाम होते ही सन्नाटा था गाँव में
न फाग, न चैता
न डफ, न डफाली
नही गुंज ढ़ोलक-झाल के।
यह फागुन भी चला गया
कुछ रंग के छिटे डाल के।

          - गणिनाथ सहनी, रेवा

गुरुवार, 1 मार्च 2018

आओ मिलकर होली मनाए! - जितेश हिन्दू

मन में रंग बसाये,               
जितेश हिन्दू
         
उमंग नया लावे|
पुर्ण हर्षित होकर,
विवेक को सप्तरंग बनावे|


होली है,
सब झंझावट भूलकर,
आओ मिलकर गुलाल उड़ाए|
केवल रंगों का हेर-फेर नहीं,
दिल को दिल से मिलाए|


सोचो!
इसिलिए तो शायद!
हमारे पूर्वजों ने होली मनाई थी|
होलिका जली थी, भक्त पहलाद
को जीवन मिला|
सक्षात् सत्य अग्नि से खेला,
तभी तो अगले दिन सबने खुशियाँ
मनाई थी|


क्यों ना,
यही परंपरा दोहराये
इस बार मन की होलीका जलाए,
अग्नि में तप कर पहलाद बने|
आओ मिलकर होलिका जलाए!
आओ मिलकर होली मनाए!

                         - जितेश हिन्दू

कांग्रेस की निफ्टी और सेंसेक्स दोनों में भारी गिरावट के पूर्वानुमान

भविष्य में क्या होंगी, मैं नहीं जनता हूँ |  इस दौर में बहुत लोग अभिव्यक्ति की आजादी का अलाप जप रहे है |  तो मुझे भी संविधान के धारा  19  क...