बुधवार, 12 दिसंबर 2018

डिजिटल तकनीक की समीक्षा हो - जितेश सिंह

social-media
परिवर्तन शब्द ही अपने में हजारों नवाचार को साथ लेकर आता है| परिवर्तन आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, परम्परागत तौर-तरीके के लिए हो| परिवर्तन विकास और वृद्धि के लिए हो| विनाश और समाज के विकांगता के लिए नहीं| आज का तकनीकी परिवर्तन हमें मानशिक और शारीरिक रूप से कुपोषित कर रहा है| इसके अलावे जीवन जीने लिए आपेक्षित संसाधनों एवं संभावनाओं की धज्जियाँ उड़ा रहा है| समाज, सरकार और विज्ञान सभी ऐसे चीजों को ही बढ़ावा दिए जा रहा है| उपयोगिता को आधार बनाना कर समाज को मूल कारणों के भटकाने के लिए पूरे विश्व को डिजिटल किया गया है| तब हमें बताया गया की इसके प्रयोग से समय बचेगा| समाज 'दिन दोगुना और रात चौगुना' तरक्की करेगा| क्या इससे समाज में दुष्परिणाम होंगे,उसके बारे में ध्यान दिया गया है? कैसे किसी वस्तु का हम सिर्फ एक पहलू पर विचार करके उसका प्रचार-प्रसार और उपयोग को बढ़ावा दे सकते है? किसी भी तकनीक के उपयोग के लिए उसका पूर्ण प्रशिक्षण क्यों जरुरी नहीं समझा गया? वैज्ञानिक दृष्टि इतनी बड़ी चूक कैसे कर गयी? फेसबुक व्हाट्सएप्प और ट्विटर से आज जितने फायदे दंगे भड़काने में हुए है; क्या उतने फायदे सामाजिक सम्बन्धों को बढ़ावा देने के लिए किया गया है? आज जहाँ भी दंगा होती है सबसे पहले इंटरनेट सेवा ही बंद होती है क्यों? आखिर सोशल मिडिया है ना तो फिर सबसे पहले सामाजिक अंतर संबंध में मनभेद और मतभेद को जुबानी दंगे का रूप कौन देता है? क्या जिस प्रकार के सामाजिक, जातिगत, नीतिगत, वैचारिक, सामुदायिक तनाव बढ़ा है| इसमें फेसबुक, व्हाट्सएप्प और ट्विटर का रोल क्या रहा है; सोशल या अनसोशल या दंगे भड़काने का? एक जिम्मेदार सामाजिक प्राणी होने के सभी पैमाना पर हम बुरी तरह फेल हुए है| हमने अपने निजी, क्षणिक और अस्थायी ख़ुशी के लिए प्रकृति और उसके अंश मानव सहित अन्य प्राणियों को मृत्यु के समीप हँसता हुआ छोड़ दिए है| इसका हमें ज्ञान तो है लेकिन समझ और बुद्धि शायद भ्रष्ट हो गयी है| हम जानते हुए भी सब कुछ प्रयोग कर रहे है| यह प्रमाण हमारे विक्षुब्ता(स्क्रूढीला) का है| जो रसायनशास्त्र के पंडित है वही परमाणु बम और रासायनिक हथियार बना रहे है| ऐसे बुद्धिजीवियों के लिए एक प्राचीन संस्कृत की कहानी सटीक खड़ी उतरती है| 

जितेश सिंह

आपने तो शायद सुना भी होगा एक बार तीन प्रचंड विद्वान और उनका एक सेवक जो मंदबुद्धि था| चारों पास के गाँव जा रहे थे| गांव जाने का रास्ता जंगल से गुजरता था| चारों जंगल के बीचो-बीच पहुंचे तो उन्हेंने एक मृत शेर की हड्डियां देखी| तीनों विद्वानों में से पहले ने कहा मैं अपने विद्या से इसे जोड़कर कंकाल का रूप बना दूंगा और मृत शेर के हड्डियों का कंकाल बना दिया| दूसरे ने कहा मैं अपने विद्या से इस कंकाल में मांस-पेशियाँ का भर सकता हु और कंकाल से उसे भयानक आदम खोर शेर बना दिया| अब बारी तीसरे की आयी तो उसने कहा मैं इस शेर को जीवित कर सकता हूँ तभी उनका सेवक पेड़ पर चढ़ गया और जैसे ही तीसरे विद्वान ने शेर को जीवित किया| एक झपटे में शेर ने तीनों विद्वानों को मारकर खा गया| आज यह शेर फिर कुछ विद्वानों के कारण फेसबुक, व्हाट्सएप्प और ट्विटर जैसे सोशल मिडिया के रूप में आकर हमें अपना आहार बना रहा है| हमारे प्राणों को हरण कर लिया है, इसके बिना कुछ है ही नहीं; इस रंगमंच दुनिया में ऐसा लगता है| अब समय आ गया है, हम अपने तकनीकी माध्यमों का अवलोकन कर उसे उचित दिशा में प्रयोग करे| जहाँ वांछित परिवर्तन कि जरुरत है; जरूर करे| आज के अवांछित डिजिटल तकनीक से हमें दूर और आँख बंद करने की जरुरत है|
हमें सेवक की भूमिका के रहकर खुद को बचाने का या विद्वानों की भूमिका में रह कर खुद को मिटाना  है; तय करना होगा| क्योंकि आज का डिजिटल तकनीक और जीवन एक दूसरे के बैरी मालूम पड़ते है|    
         

सोमवार, 10 दिसंबर 2018

एक प्रेम कहानी - जितेश सिंह

दो लब्ज ही बया करती हूँ| तुम समझ जाते हो, मेरी कहानी क्या है, कैसे? सासों से भी पहले याद एक बार तू आता है| मेरी आँखें देखते ही तुझको दिल में उतर लेती है| मैं हमेशा डरती हूँ, जो मैंने  महसूस किया वो तूने किया, किया तो बताया क्यों नहीं और नहीं किया तो मैं क्यों दीवानी होते जा रही हूँ| एक-एक प्रश्न मुझे अंदर ही
अंदर मीठा दर्द  दे रही थी| एक बात बोलू , मैं इस दर्द से निकलना भी चाहती थी अगर तू हाथ थामे तो; नहीं तो
हमेशा के लिए इसी दर्द में जीना चाहती थी तेरी दीवानी बन कर| सब्र की नैइआ पर मैं बैठी सोचती रहती थी कि तू आये और हाथ थम ले| सारे आस-पास के लोगों को खबर मिल चुकी थी मैं तेरी दीवानी हूँ; फिर भी तेरा अनजान बना रहना मुझे तरपा रहा था| देखते ही देखते दो साल बीत गए| तू वैसा ही रहा जैसा था, बस अपने हंसी में जिया जा रहा था मेरी प्रवाह तो दूर; तुम तो पास आकर भी इतने दूर थे जैसे गगन के टिमटिमाते तारे को पसंद किया हूँ मैं| मेरी दर्द, तकलीफ, तरप, मायूसी से कही दूर तू टिमटिमाते रहा और मैं टूट कर तुमको प्यार करती रही| देखते देखते हम दोनों उस पाठशाला से उत्तीर्ण हो गये और तुम रेत की तरह मेरे हाथों से निकल गए| जब आखरी बार भीगी आँखों के तुमको देखा और चली गयी| शिकायत तुझसे तो था ही नहीं; कभी तुमको मैंने बताया नहीं की मैं तुमसे प्यार करता हूँ और मन ही मन सोच लिया एक दिन खुद तू ही आकर हाथ थम लेगा| सच बोलू तो मैं आज भी तुझे देखकर जीना चाहती हूँ| कमबख्त समय और नियति ने हमें जुदा कर दिया|
आज तुमसे बिछड़े हुए लगभग चार साल बीत गए| बहुत दिनों बाद मेरी एक सहेली मिली थी| वो बड़ी दुखी थी| जब मेरे साथ पढ़ती थी तो बहुत ही तेज-तरार थी| कई बार तो मैंने उसकी कॉपी से नक़ल की| वो और अपने कक्षा के दूसरे बेंच पर तीसरे नंबर पर जो लड़का बैठता था ना, क्या नाम है उसका याद नहीं आ रहा है| उसी को पसंद करती थी| तब वो भी उसे चाहता था| दोनों की जोड़ी बहुत प्यारी लगाती थी| लगता था एक दूसरे के लिए ही बने हो| मुझे तनिक संदेह नहीं था कभी उसके साथ ऐसा होगा और वो कभी ऐसा करेगा| जिसका सुबह और शाम उसी को हंसाने और लुभाने के लगता था| लेकिन जब मैंने अपनी सहेली जो कल तक एक फूल जैसी दिखती थी| उसका मुरझाया चेहरा और मायूस आठों ने सब बया कर दिया| क्या हुआ होगा उसके साथ 'साले ये लड़के' ऐसे ही होते है| अच्छा हुआ कि हम कभी इसके चक्कर में नहीं पड़े| नहीं तो मेरी भी स्थिति ऐसी ही होती| मैंने उसे बहुत समझाया-बुझाया वो चला गया तो गया| उसके चक्कर में मत पड़ उसे छोड़ कर जो तुमसे प्यार करते है उसके लिए हंसो| बहुत प्रयास के बाद उसके चहरे पर चार साल पहली वाली मुस्कान ने मेरे अंदर की तरप को ठंडा कर दिया| 

जितेश सिंह

कुछ भी मैं बोलू; मैं जिसे पसंद करती थी वो लड़का बहुत अच्छा था| मैंने कई बार उससे बात करने की कोशिश की| आँखों ही आँखों से कई प्रेम-पत्र सामने से उसको दिया पर उसने एक बार पलट कर जवाब नहीं दिया| जैसे ही मेरे मन ये सवाल आया फिर से मैंने उसकी दीवानी होने लगी|  
एक समय के लिए उससे पूरी कहानी सुन कर मैं चकित रहा गया| कोई इतना प्यार मुझे करता था| फिर भी पास आने पर तनिक एहसास भी नहीं होने दिया| सच मानों उसने मुझे जीता लिया था आज| हाँ ये बताना तो भूल ही गया जब मैं उसके अलग हो गया तो फिर मिला कब? आज हम एक दूसरे के साथ है और मैं उस पगली से बेहद प्यार करता हूँ| आज 5 साल बाद जब हम एक साथ आये तो उसका मेरे लिए जो 'अमर प्रेम' था| वो सब कुछ आज बया कर दी| हाँ लेकिन आज भी सालों  बाद मैंने ही उसका हाथ थाम लिया और जो कुछ जैसा उसने पिछले 7 साल में महसूस की थी| उसे उसी भाषा में कागज पर उतार दिया|
(एक काल्पनिक प्रेम कथा- JITESH SINGH )     

न्यू प्रेम मैं करता - जितेश सिंह


नया खेल हैं     
नई शाखा की
नया मेल है
दो नयनों के
प्यार अमर है
और अमर रहेगा...

यह तो नया खेल है
चिर-हरण का
चिर यहाँ कोई खींचता नहीं
यह चिर प्रदर्शन है
न्यू प्रेम का...

इतिहास का अमृत प्रेम
विषैला हो चला है
अब कोई प्रेम करता नहीं
मन में किसी के झांकता नहीं
बदन के सुंदरता पे
लो अब मैं नाम लिखता हूँ
क्यों की न्यू प्रेम मैं  करता हूँ ....





रविवार, 9 दिसंबर 2018

"राधा केवल प्रेयसी या और कुछ" - कुमारी अर्चना

कुमारी अर्चना पूर्णियाँ,बिहार

राधा कृष्ण के बिन
हमेशा आधी ही रही
पूर्णता के लिए
वैवाहिक बंध चाहिए
जो उसे न मिल सका
पर क्यों?
क्या द्वापर युग में
राजा महराजा और उनकी प्रजा
एक पत्नीधारी थे
कोई उपपत्नियाँ नहीं रखते थे
क्या सवाल का कोई जबाब है?

प्रेयसी केवल प्रेम करने व
कामपूर्ती के लिए होती है
विवाह के लिए नहीं
परन्तु क्यों ?
कृष्ण ने रासलिला तो वृदावन में 
राधा और गोपी संग रचाओ
पर मथुरा की पटरानी क्यों न बनाओ!

विष्णुजी को नारद मुनि का श्राप था
रामराज्य में सीता का परित्याग
कृष्ण अवतार में राधा से वियोग!

अपराधी तो कृष्ण था
पर अपराधन क्यों राधा बनी
जो उसे वैराग जीवन मिला
विवाहिता का सुख ना मिला!

सदियों से पुरूषों द्वारा छलने
की एक प्रथा चली आई
आज भी चल रही
प्रेयसी प्रेम व कामपूर्ति की
वस्तु में तबदिल हो गई
जो मान प्रेयसी राधा को
बिन पत्नी बने मिला
कृष्ण से पहले राधा का नाम जुड़ा
वही आज पुरूष के बाद नाम 
जब किसी स्त्री का नाम जुड़ता तो
पिता,परिवार,कुल और गोत्र
की नाम व  इज्जत चली जाती
कभी गर्लफ्रेंड तो रखनी बन जाती
कहीं ऑनर किलिंग तो 
कहीं हत्या कर दी जाती तो
कहीं आत्महत्या को विवश!

समाज ने तो कभी भी प्रेयसी को 
धर्मपत्नी का दर्जा न दिया
लोकतांत्रिक देशों की न्यायपालिका ने
प्रेयसी को कानूनी हक़ दिया
विवाहिता समझी जाएगी
बिन पारम्परिक रीति रिवाजों के भी
यदि पत्नी कर्म निभाती हो!
काश् राधा के युग में 
न्याय की सर्वोच्च व पारदर्शी व्यवस्था होती तो
रूक्मनी की जगह राधा होती!



"मैं साहित्य का नन्हा कुकुरमुत्ता हूँ" - कुमारी अर्चना

कुमारी अर्चना कटिहार,बिहार

मैं साहित्य का नन्हा सा 
कुकुरमुत्ता कवयित्री हूँ
मुझे पेड़ बनते देर ना लगेगी
पर शेष बचूँगी तक ना!

चाटुकारता करूँगी कभी कागज पे
फोटो बन चिपकने के लिए
कभी मंच पर मुँह दिखाने के लिए
तो रचनाओं को छपवाने के लिए!

बिक जाऊँगी इन्हें संभालने में
नाम होना तो दूर रहा
नाम सामने लाने के लिए भी
धन खर्च करना होगा
तो कभी तन
मन की यहाँ आवश्यक नहीं
वो केवल साहित्य लेखन के लिए  ...

मैं निराला का कुकुरमुत्ता नहीं हूँ
जो विदेशी सत्ता से 
भारत की आजादी के लिए संधर्ष करें
तो कभी गुलाब से लड़ मरे!
मैं यहाँ खुद के अस्तित्व के लिए
संधर्ष कर रही हूँ!

मैं साहित्य की बिसाद पे
नन्हीं सी प्यादी हूँ
संर्धष कर भी तब तक ना जीतूँगी
जब तब वजीर के इशारे पे ना चलूँगी
पर ये वजीर कौन है
साहित्य सिखाने वाले गुरू
बाजार व्यवस्था
मिडिया नियंत्रक
राजनीति के सर्वेशर्वा या
साहित्य समाज के कर्ताधर्ता !


"हाँ मैं प्रसिद्ध होना चाहती हूँ" - कुमारी अर्चना

कुमारी अर्चना कटिहार,बिहार

क्या करना होगा
अपना चेहरा रोज रोज
गमकऊँआ साबुन से चमकाना होगा
फेरनलवली खूब पोतना होगा
सात धंटे की पूरी नींद लेनी होगा
फिर फेसबुक,इन्ट्राग्राम पर
हॉट,सेक्सी व भड़काऊं 
फोटो अपलॉड करनी होगी!

लाइक पे लाइक 
कौमेंन्ट पे कौमेन्ट से
मेरे पोस्ट पे भरे होगें
मेरी खुबसूरती के 
दिवाने इनबॉक्स में 
लाइन में खड़े होगें!

मुझे अपने छोटे से कारनामों को 
बड़ा चढ़ा कर शोखी बघारनी होगी
अखबार व टी.वी पर प्रचार करना होगा
सखी सहेली को बार बार फोन करके
अपना झूठा कच्चा सब चिट्ठा बतियाना होगा
लोग तारिफ के पुल पे पुल बाँधेगें
मैं प्रसिद्धी के पुलंदे पर चढ़ जाऊंगी!

मैं कभी हिरोइन 
तो कभी मॉडल 
तो कभी अधिकारी
तो कभी नेताईन
तो कभी डॉक्टर
तो कभी इजीनियर बनने का
ख्वाब  बनाऊंगी!

महानगर के सबसे पोश इलाके में प्लेट खरीदूंगी
नोटो के बिस्तर पर सोऊंगी
लाइम लाइट की जगमगाती
दुनिया में जीऊंगी
महँगी गाड़ीयों के लाइने लगी होगी
डिजायनर कपड़ों से अलमारी भरी होगी
घर में समान से ज्यादा नौकर होगें
हीरे जवाहरात से मैं लदी होऊंगी
धीरे धीरे सोचे सोचे उम्र निकल जाएगी
और मैं सिजोफ्रेनिया को मरीज हो जाऊंगी
फिर बढ़ापे में भूलने की बिमारी हो जाएगी
मैं प्रसिद्ध हो जाऊंगी
मैं कौन थी?



"समाज का मेहतर हूँ मैं" - कुमारी अर्चना

कुमारी अर्चना कटिहार,बिहार

ब्राह्मा के पादुका में
समाज के निचले स्तर पर
मेहतर कहलाता हूँ मैं
उतर वैदिक काल से
कलयुग तक का सफर
बहुत से उतार चढ़ाव आए
पर मैं एक सा रहा है!

तुम्हारे अंदर और बाहर की
गंदगी झाड़ता,फूंकता हूँ
मन को साफ नहीं कर पाता
वक्त दर वक्त परते पड़ती गई
और मैं मेहतर का मेहतर रहा!

काश् कोई मुझे भी 
झाड़ फूंक कर साफ कर पाता
जैसे कपड़े,बरतन और कागज
सर्फ,साबुन और वाइटनर से हो जाते 
पर मैं कितना भी साबुन मलूँ 
चाहे तो गंगा ही क्यों ना नहा लूँ
मेहत्तर का मेहतर रहता!

फर्क बत इतना है कि
पहले अपने ही पदचिन्हों
झांडू से मिटाता चलता था
अब दूसरे के परचिन्हों को!

अनुसूची जाति का दर्जा व
आरक्षण का लाभ पाकर भी
समाजिक स्तर पर खूदको
मैं कभी ना उठा पाया
आर्थिक स्थिति में भी
अन्य जातियों से तुलना में
पीछे का पीछे ही हूँ
जैसे पहले मेरी थी!

क्या मैं मेहतर ही रहूँगा
क्या मेरी मुक्ति संभव नहीं
जैसे बुद्घ और जैन की हुई
मेरी गंदगी के सफाई से!

ये काम तो हर इन्सान 
स्वं के लिए करता है
पर समाज की गंदगी ढोना
मेरा ही कर्तव्य और कर्म
क्यों बन कर रह गया
और मेरा सम्मान भी शेष!


बुधवार, 5 दिसंबर 2018

"मेरा घर एक चिड़ियाँखाना" - कुमारी अर्चना

कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार

कुकरू कुकरू कर जगाता मुर्गा
चूँ चूँ बड़बड़ाती तब गौरैया 
पंख फैला कर नाचती तितली 
गुटर गूँ,गुटर गूँ कर बोलता कबूतर
मेय मेय कर चिलाता बकरा
मिठ्ठू मिठ्ठू कर पुकारता तोता
माँ माँ कर बुलाती गईया
जोर जोर से दम लगाती बछिया
भौ भौ कर भौकता कुत्ता
तब भाई बहन की आँख खुलती
हम सब रहते एक ही घर में
मिल जुल कर एक परिवार की तरह
इस चिड़ियाखाना में रहते!

भाई बहन के द्वंद में 
मुर्गे का काम तमाम हुआ
माँ की मन्नत में बकरा(खस्सी)
देवी को बलि चढ़ी
मिठ्ठू बारिश के पानी में 
नहाते नहाते ठंड से मरा
फूल सारे खत्म हूए 
तितली परदेश चली गई
गईया के साथ बछिया 
बधिया(कसाई )के हाथों बिक गई
पेड़ पौधे भी कटने से गौरया रानी
रूठ किसी ओर के घर चली गई
खोप खुले रहने से कबूतरों
बाहर दाना चुनने फुर्र हो गए
भौ भौ करता जाॅनी को
जहर देने से मौत हो गई
घर के सारे बासिंदे बिछड़ गए
हमारा कुनबा टूट कर बिखर गया!

ऊँची ऊँजी जेल जैसी दिवारे थी
खिड़की थी पर खुलती ना थी
बाहर सड़क थी अंदर घर
सुरक्षा कारणों से स्कूल भी नहीं जाते थे
पिता पुलिस में थे थानेदार थे
आए दिन चौर और बदमाशों के
धमकियों भरे खत आते थे
गब्बर आएगा सबको मार देगा
भय के साये में बच्पन बीता
घर पर ही दोनों टाइम ट्यूशन चलता
धीरे धीरे हम सब चिड़ियाखाना के
कैद के बंदी बनकर रह गए
जो दो टांगे रहकर भी भाग नहीं सकते!





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"पलाश के फूल" - कुमारी अर्चना

कुमारी अर्चना
पूर्णियाँ,बिहार

पेड़ की डाली से जब
सारे के सारे पत्ते 
झड़ नीचे आते
पेड़ की एक एक डाली के
ऊपर फूल लद जाते!

बसंत के मौसम में ही 
पलाश फूल खिलते
जंगल में आग लगाते
और तुम मेरे मन में!

वैसे जब ही तुम आते
मुझ पर फागुन का फाग
पलाश के फूलों से बने
लाल रंग को लगाने
कभी खुशब़ू तो ना देते पर
मेरे मन में सदा तेरे
यादों की बगिया को महकाते
जब भी तुम चले जाते!

अद्धचँद्राकार पंखुडियाँ
वैसे चाँद सा तुम्हारा मुँख
छटा लालवर्ण के फूलों की
सूरज के किरणों से
कनक सी आभा आती!

गहरे लाल फूलों को टेसू कहते
वैसे तुम भी  मेरे टेसू हो
जब गुस्से से तुम्हारा
चेहरा लाल लाल हो जाता!

पलाश को तलाश फूलों की रहती
और मुझे तुम्हारी!
वो भी ठूठा पेड़ सा
मुक बना रहता
और मैं पत्थर सी
बेज़ान मुरत!

फूलों से यौवना हरा रहता
गर्मी कहीं उड़न छू हो जाती
वैसे ही तुम्हारे होने से मेरी
प्राणवायु दीर्धायु हो जाती!



ढह जाए न हिन्दू के सीने का त्याग - अभिनेष कटेहादुबे"दीप"

उन्हें तनिक न भय होता है

अभिनेष कटेहादुबे"दीप"

तूफानों के आने का,
हुनर मिला है जिन पेड़ों को
आंधी में झुक जाने का  ।
उन्हें बसंत भरमा न पाया
जड़ में जिसने पैर जमाया
इस जग में वो ही बड़े हुए है
जो जड़ को जकड़े अड़े हुए है
प्रतिमाओं में वो मढ़े हुए है
जो झुक कर फिर से खड़े हुए है,
हर  हिन्दू  के  सीने  का त्याग
 कहीं  ढह जाए न
भरत  भूमि  की  माटी  पर
दाग कहीं रह जाए न
जिसने हमको सत्ता दी है
और दिया सारा शासन
उसी राम को दे न पाए एक
दिव्य ऊँचा आसन .....
                              

मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

“फुटपाथ" - लेखिका कुमारी अर्चना

कुमारी अर्चना

 पूर्णियां, बिहार 

मोर्या होटल का
आलिशान बिलडिंग
राजशी ठाठ बाट

नेता,अभिनेता बड़े लोगों से
यहाँ की महफिल सजती है
कई हजारों के एक कमरे
मंजिलों पे कई मंजिले
आगे पीछे नौकर चाकर
सुरक्षा के लिए तैनात दरवान
जैसे बाॅडर पर जवान!

देख कर तो लगता है
किसी बड़े अधिकारी
या नेता का घर हो
बत्तीयों की सजावट से
नई दुल्हन सी लगती है!

रात के काले अंधेरे में
जब कुकूर केवल भौंकता है
शहर सोता है उजाले में
होटल के आगे नंगी फर्श पर
कई भिखारी सोए रहते है
या यूँ कहे बस एक जिंदा लाश
पड़ी रहती है जब तक कि

होटल का दरबान गेट नहीं खोलता
फिर लाशे चलने लगती है
एक घर से दूसरे घर
एक दुकान से दूसरे दुकान
एक सड़क से दूसरे सड़क पर
हाथ फैलाए कटोरा लिए
दर दर भटकते हुए
संवेदना का लावा जैसे
आँखों से फूट पड़ेगा
और कलेजा मुँह को!

इतने आलिशान होटल में
क्या एक कमरा खाली नहीं
या बरामदे का कोई कोणा
जहाँ पर अपनी गरीबी छूपा सके
तन को किसी वस्त्र से ढक
ठंड़ को मात दे सके!

शायदा नहीं!
ये कैसे हो सकता है,
यहाँ सभ्य और प्रतिष्ठित लोग रहते
भिखारी अस्भय और नंगे लोंगो
के स्पर्श भर से महामारी फैल जाएगी
स्वास्थ पर दुष्प्रभाव पड़ेगा
हजारों की फीस भरनी होगी
कपड़े अलग खराब होंगे
ड्रायक्लीनर को देने पडेंगे!

होटल का प्रतिष्ठता
जाती रहेगी सो अलग
कमरों के रेट कम होंगे
लोग इस होटल के बजाय
दूसरे होटलों में जाएगे
एक भिखारी मरता है तो मरने दो!
ये उसके कर्मों का फल है
कि वो गरीब पैदा हुआ!

हाँ गरीब,भिखारी पैदा होना
मेरे ही कर्मफल है
कोई इसे क्यों बाँटे या कम करें!

फुटपाथ पर पैदा होना और मरना
जन्मसिद्ध अधिकार है
आजादी पाने का सौभाग्य है!
इससे तो अच्छा होता कि हम
गुलाम रहते सब बराबर तो रहते!

कांग्रेस की निफ्टी और सेंसेक्स दोनों में भारी गिरावट के पूर्वानुमान

भविष्य में क्या होंगी, मैं नहीं जनता हूँ |  इस दौर में बहुत लोग अभिव्यक्ति की आजादी का अलाप जप रहे है |  तो मुझे भी संविधान के धारा  19  क...