बुधवार, 12 दिसंबर 2018

डिजिटल तकनीक की समीक्षा हो - जितेश सिंह

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परिवर्तन शब्द ही अपने में हजारों नवाचार को साथ लेकर आता है| परिवर्तन आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, परम्परागत तौर-तरीके के लिए हो| परिवर्तन विकास और वृद्धि के लिए हो| विनाश और समाज के विकांगता के लिए नहीं| आज का तकनीकी परिवर्तन हमें मानशिक और शारीरिक रूप से कुपोषित कर रहा है| इसके अलावे जीवन जीने लिए आपेक्षित संसाधनों एवं संभावनाओं की धज्जियाँ उड़ा रहा है| समाज, सरकार और विज्ञान सभी ऐसे चीजों को ही बढ़ावा दिए जा रहा है| उपयोगिता को आधार बनाना कर समाज को मूल कारणों के भटकाने के लिए पूरे विश्व को डिजिटल किया गया है| तब हमें बताया गया की इसके प्रयोग से समय बचेगा| समाज 'दिन दोगुना और रात चौगुना' तरक्की करेगा| क्या इससे समाज में दुष्परिणाम होंगे,उसके बारे में ध्यान दिया गया है? कैसे किसी वस्तु का हम सिर्फ एक पहलू पर विचार करके उसका प्रचार-प्रसार और उपयोग को बढ़ावा दे सकते है? किसी भी तकनीक के उपयोग के लिए उसका पूर्ण प्रशिक्षण क्यों जरुरी नहीं समझा गया? वैज्ञानिक दृष्टि इतनी बड़ी चूक कैसे कर गयी? फेसबुक व्हाट्सएप्प और ट्विटर से आज जितने फायदे दंगे भड़काने में हुए है; क्या उतने फायदे सामाजिक सम्बन्धों को बढ़ावा देने के लिए किया गया है? आज जहाँ भी दंगा होती है सबसे पहले इंटरनेट सेवा ही बंद होती है क्यों? आखिर सोशल मिडिया है ना तो फिर सबसे पहले सामाजिक अंतर संबंध में मनभेद और मतभेद को जुबानी दंगे का रूप कौन देता है? क्या जिस प्रकार के सामाजिक, जातिगत, नीतिगत, वैचारिक, सामुदायिक तनाव बढ़ा है| इसमें फेसबुक, व्हाट्सएप्प और ट्विटर का रोल क्या रहा है; सोशल या अनसोशल या दंगे भड़काने का? एक जिम्मेदार सामाजिक प्राणी होने के सभी पैमाना पर हम बुरी तरह फेल हुए है| हमने अपने निजी, क्षणिक और अस्थायी ख़ुशी के लिए प्रकृति और उसके अंश मानव सहित अन्य प्राणियों को मृत्यु के समीप हँसता हुआ छोड़ दिए है| इसका हमें ज्ञान तो है लेकिन समझ और बुद्धि शायद भ्रष्ट हो गयी है| हम जानते हुए भी सब कुछ प्रयोग कर रहे है| यह प्रमाण हमारे विक्षुब्ता(स्क्रूढीला) का है| जो रसायनशास्त्र के पंडित है वही परमाणु बम और रासायनिक हथियार बना रहे है| ऐसे बुद्धिजीवियों के लिए एक प्राचीन संस्कृत की कहानी सटीक खड़ी उतरती है| 

जितेश सिंह

आपने तो शायद सुना भी होगा एक बार तीन प्रचंड विद्वान और उनका एक सेवक जो मंदबुद्धि था| चारों पास के गाँव जा रहे थे| गांव जाने का रास्ता जंगल से गुजरता था| चारों जंगल के बीचो-बीच पहुंचे तो उन्हेंने एक मृत शेर की हड्डियां देखी| तीनों विद्वानों में से पहले ने कहा मैं अपने विद्या से इसे जोड़कर कंकाल का रूप बना दूंगा और मृत शेर के हड्डियों का कंकाल बना दिया| दूसरे ने कहा मैं अपने विद्या से इस कंकाल में मांस-पेशियाँ का भर सकता हु और कंकाल से उसे भयानक आदम खोर शेर बना दिया| अब बारी तीसरे की आयी तो उसने कहा मैं इस शेर को जीवित कर सकता हूँ तभी उनका सेवक पेड़ पर चढ़ गया और जैसे ही तीसरे विद्वान ने शेर को जीवित किया| एक झपटे में शेर ने तीनों विद्वानों को मारकर खा गया| आज यह शेर फिर कुछ विद्वानों के कारण फेसबुक, व्हाट्सएप्प और ट्विटर जैसे सोशल मिडिया के रूप में आकर हमें अपना आहार बना रहा है| हमारे प्राणों को हरण कर लिया है, इसके बिना कुछ है ही नहीं; इस रंगमंच दुनिया में ऐसा लगता है| अब समय आ गया है, हम अपने तकनीकी माध्यमों का अवलोकन कर उसे उचित दिशा में प्रयोग करे| जहाँ वांछित परिवर्तन कि जरुरत है; जरूर करे| आज के अवांछित डिजिटल तकनीक से हमें दूर और आँख बंद करने की जरुरत है|
हमें सेवक की भूमिका के रहकर खुद को बचाने का या विद्वानों की भूमिका में रह कर खुद को मिटाना  है; तय करना होगा| क्योंकि आज का डिजिटल तकनीक और जीवन एक दूसरे के बैरी मालूम पड़ते है|    
         

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