जुलाई का महीना हैं| भोपाल में लगातार तीन दिनों से वर्षा
हो रही हैं| मौसम भी थोड़ी ठंडक हो गई हैं, इसलिए धुमना-फिरना दुर्लभ हो गया है| 10 दिन पहले मेरी बी.ए. फर्स्ट ईयर की परीक्षा समाप्त हुई| आप तो जानते ही हैं, कि शहर में रहकर पढ़ने वाले हम
जैसे लड़कों को छुट्टियों में घर जाने की कितनी ख़ुशी होती हैं! जब मैं गाँव में
पढ़ता था तब परीक्षा के दिन जैसे-जैसे नजदीक आते थे| सामान्य आदते छूटते चले जाते
थे| बस स्कूल से घर, घर से स्कूल दिन-रात पढ़ते रहते थे| इतनी
भी क्या जल्दी हैं, 1 महीने बाद
परीक्षा नहीं हो सकती थे? अभी तो ठीक से तैयारी भी नहीं हुई
हैं| आज जब गाँव से इतना दूर हूँ तो सच में परीक्षा से भय नहीं लगता| मैं तो अब
चाहता हूँ कि सभी विषय की परीक्षाएं जल्दी हो जाये और एक बार फिर पहुँच जाऊ वही
टूटी स्कूल, उखाड़े सडकों, बारिस से टपकता घरों में, बिछड़े दोस्तों के साथ कुछ पल
बिताऊ| खासबात यह हैं, कि वो भी इसी पल का इंतजार करते हैं| मेरी तरह मेरे दोस्त
भी शहरी जो हो गये है!
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जितेश सिंह
अ.बि.वा.हि.वि.वि., भोपाल
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बारिस का तो पहले ही जिर्क किया था तो, आज एकदम से
निक्कामों की तरह सोच रहा था! कैसे इतनी दूर पहुँच गया? क्या वो झोपड़पट्टी स्कूल
के बुद्धू में इतना हौसला था? फिर पुरानी आपबीती से दिमाग घिर गया और मुझे अपने 'झोपड़पट्टी
स्कूल' की यादे आने लगी| कुछ था वहाँ की स्कूल में खास जिसे अब तक भुला नहीं पाया|
यह वही पवित्र स्थल था, जहाँ मैंने बोलना सिखा, जहाँ मैंने पढ़ना और लिखना सिखा|
यहाँ कुछ तो पागलपन करता था, जिसे भुलना बईमानी होगी| जब तब तन्हाई में दोस्तों की
योदों में, हताश, निराश, परेशान माहोल में होता हूँ, तो यही यादे मुझे जीने की
शक्ति देती हैं| जो अय्यारी कल तक कमीनापन लगता था| आज मेरे लिए उर्जा स्रोत है और
मेरा मार्गदर्शन कर रहा हैं| प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अपने स्कूल के दिनों की
बेकार और बेवजह लगाने वाली धटनाएं जुडी हैं| प्रत्येक स्मरण में एक नई घटना जुडी
हैं| एक दशक बाद वही यादे पुनर्जीवित हो जाती हैं| हर पल सहारा देती है, कभी भी
तन्हाई, अकेलापन उस यादों में जीने पर महसूस नहीं होता है|
अच्छा ये तो सब को याद होगा ही बचपन के दिन स्कूल से ठीक
पहले 9:30 से 11:00 तक पेट दर्द हो जाता था, फिर बिना दवा के आराम कैसे होता था? गाँव के पास
एक कान्वेंट स्कूल में मेरा नामांकन हुआ था| मैंने यही गिनती, पहाड़े, बारहखड़ी के
साथ ही होमवोर्क के पन्ने फाड़कर कचड़ा फैलाना भी सिखा था| जितनी थप्पर मुझे उस समय
दोनों गालों पर पड़ी फिर कभी नहीं| आज जिस 'स्वच्छता आभियान' की मोदी चर्चा करते
फिरते हैं| मेरे जीवन में 13 वर्ष पहले ही यह घटना घट चुकी हैं, उसके बाद से,
मैंने कॉपी फाड़ना या किसी तरह का कचड़ा फैलना एकदम भूल ही गया| सर क्लास में कुर्सी
पर बैठकर बारी-बारी से होमवर्क देख रहे थे| एकदम से उनकी नजर मेरे हरकतों पड़ी या
किसी ने गद्दरी की पता नहीं! मैं अपना होमवर्क फाड़कर कागज का टुकड़ा बेंच नीचे फेका
ही था, जैसे की जोर से दो बार ताली बजी मैं आवाज सुनकर रोने लगा| अनुमान आप लगाये
ताली कहाँ बजी होगी? उसके बाद जो हुआ हास्य लगेगा लेकिन कष्ट इतना ज्यादा था कि
पूछिये मत, क्लास रूम में कागज के जितने टुकड़ा गिरे थे, सभी मेरे मुंह में रखकर
बिना हाथ की सहायता से कूड़ेदान में फेकना था| कूड़ेदान तक तो मैं पहुँच गया, मेरे
मुंह में कागज का टुकड़ा इतना भरा था कि बिना हाथ लगाये कागज से टुकड़ों को मुंह से निकलना
नामुमकिन था| करीब आधें घंटे धुप में कूड़ेदान के पास खड़ा रहा होगा| फिर मास्टर
साहब का गुस्सा थोडा शांत हुआ तो हाथ लागाकर उन कागज के टुकड़ों को कूड़ेदान में फेक
कर वापस आया| फिर से ताली बजी, आगे से होमवर्क नहीं फाड़ना और होमवर्क बनाकर लाना,
जाओं बैठों!
नर्सरी में जो सजा मुझे मिली उसके बाद मैंने ना ही
होमवर्क का पेज फाड़कर फेका और नहीं कभी किसी तरह की कचडा फैलायी| नर्सरी की यह सजा
मुझे आज तक मार्गदर्शन करती रही- "जहाँ रहूंगा, स्वच्छ रखूंगा!"
होमवर्क, कविता और पाठ यादें नहीं रहने पर पिटाना तो रोज
दूध पीने जैसे था| इसके साथ ही दोस्तों से झगड़ा, हो हल्ला, पोस्ट ऑफिस वाला खेल,
एक दिन तो च्विंगम खाकर आगे वाली बेंच पर लगा दी, जिस पर लड़कियाँ बैठती थी| इन सभी
बातों पर भी कुछ कम थप्पड़ या छड़ी नहीं खायी होगी! एक बार तो छुट्टी के समय इतनी
पिटाई सभी दोस्तों की हुई, आज भी याद करके हंसी नहीं रूकती| उस समय मैं यु.के.जी.
में था| घड़ी मेरे पास नहीं थी और ना ही किसी को टाईम देखने आती थी| अच्छा जरा ये
सोचों कोई भी ऐसा लड़का-लड़की होगा, जिसे छुट्टी की बेचैनी ना हो शायद नहीं! सभी तो छुट्टी
नाम मात्र से ही ख़ुशी मिलती है| उस वक्त छुट्टी सुनकर जो उत्साह मिलता था भला आज
कहाँ? मेरी स्कूल की छुट्टी मुझे आज भी याद हैं, 'प्रियंका बस' के जाने के बाद
होती थी| जैसे बस सड़क पर नजर आती सभी अपने बैग पैक करने लगते थे| कुछ लडके हमारी
तरह उत्सास में चिल्लाने लगते थे 'छुट्टी'! दिन-प्रतिदिन हमारा चिल्लाने की आवाजों
में वृद्धि होती गई| एक दिन मेरे साथ आशीष, बिक्कू, राहुल और सोनू की गणेश सर ने
जमकर पिटाई की| जो फुलपैंट पहने थे उन्हें भी और जो हाफपैंट पहने थे उन्हें भी,
मगर दोनों की पिटाई अलग थी| उसके बाद हमने 'प्रियंका बस' से रिश्ता ही तोड़ लिया| इसी
प्रकार शैने: शैने: पढाई के साथ शरारते भी बढ़ी और पिटाईयों के ग्राफ भी बढ़ता गया| इस
तरह से शुरूआत के 5 बरस तक यही मेरी शिक्षा-दीक्षा हुई|
जहाँ मैंने पढ़ना, लिखना, हँसना और सभी नैतिक क्रियाओं को
सीखा| इसकी शिक्षा इतनी उच्चकोटि की थी कि दूर-दराज के गांवों में इसकी प्रसिद्धि
थी| आर्थिक तौरपर यह स्कूल की मासिक शुल्क बहुत कम था| शिशु ज्ञान मंदिर, रेवाडीह
आज भी आवेदन लिखते समय इसका शोर्ट फॉर्म नहीं भूल पाया हूँ| आस-पास बसे गांवों के
बड़े-बुजुर्ग इसे यज्ञशाळा कहा करते थे| सच में यह यज्ञशाळा ही था| इसकी तप ने
आस-पास के कितने गाँवो को शिक्षित किया| हजारों बच्चों के जीवन में शिक्षा की अलख
जगी! इसके संचालक और प्रध्यानाचार्य श्री गणेश प्रसाद सिंह थे| शिक्षा को ग्रामीण
स्तर पर जितना इन्होने बढ़ावा दिया हैं| उनके शिक्षारूपी ऋण को आज भी मैं क्या मेरे
जैसे हजारों छात्र-छात्रा और उनके परिवार वाले नहीं चुका सकते हैं! मैं तो हमेसा
मुफ्त में पढ़ता रहा| खासबात यह थी कि एक ही घर से तीन बच्चे एक साथ पढ़ें तो सबसे
छोटे वाला की फ़ीस माफ़ थी| तो मेरा फीस नहीं लगता था| तभी तो मैंने पहले ही कहा
"मैं तो मुफ्त में पढ़ने वाला विद्यार्थी था|" 1990 से 2008 तक यह
विद्यालय अपनी सेवा से शिक्षा की ज्योति जलाते रहा| मुझे इस स्कूल से आखरी छात्र
होने का गौरव प्राप्त है| गणेश सर के साथ ही कई अन्य शिक्षकों का भी सराहनीय
योग्यदान था, सभी शिक्षकों तो नाम बताना मुस्किल है, यादे उबाऊ हो जायेगी| हाहाहा!
लेकिन दो-चार शिक्षकों को स्मरण करना जिम्मेदारी बनती है, वो शिक्षक जो अंत तक
स्कूल से जुड़े रहे, भारती जी थे| इनका भी योगदान महत्वपूर्ण हैं| 2008 में गणेश सर
की सरकारी नौकरी हो गई| उसके बाद व्यवस्था और शिक्षकों की कमी से इसे बंद करना
पड़ा| लेकिन तब तक कई कान्वेंट स्कूल और कोचिंग सेंटर आस-पास के गांवों में खुल
चुके थे| लेकिन यज्ञशाळा तो यज्ञशाळा ही होता था! और मुर्गीफार्म मुर्गिफार्म ही!
गांवों में 2008 से बाद नई स्कूल अधिकतर मुर्गीफ़ार्म में ही खुली जो शिक्षा क्रेंद
से ज्यादा व्यावसायिक थी|
मुज़फ्फरपुर से 35 किलोमीटर दूरी पर ही मेरा गाँव 'रेवा'
हैं| मुजफ्फरपुर से पश्चिम की ओर छपड़ा-मुजफ्फरपुर जाने वाली NH 102, रेवा रोड के
नाम से विख्यात हैं| सड़क के किनारे-किनारे ही बसा यह 22 टोला का गाँव सुप्रसिद्धि
के साथ ही कूप्रसिद्धि भी हैं| यहाँ से गंडक नदी बहती हैं| नदीं के किनारे सुखे
हुए भूभाग यहाँ के आय का मुख्य स्रोत हैं| वहां लोग तरबूजा, खरबुजा, लालमी, लौकी,
खीरा, करेला उगाये हैं और इसी को बेच कर जीवन-यापन करते है| कुछ लोग मछली भी पकड़ते
हैं| नदीं के पास ही एक प्राचीन शिवमंदिर भी हैं, जहाँ हमेशा भक्तों की आवा-जाही
रहती हैं| मंदिर के आस-पास काफी चहल-पहल रहती हैं| सावन के पूरे महीने शिवमंदिर
में रुद्राभिषेक, हवन, पूजा, भंडारा चलता रहता हैं| कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहाँ
दूर-दराज से श्रद्धालु गंगा स्नान करने आते हैं| यहाँ पूर्णिमा के 10 पहले से ही
मेला लगना शुरू हो जाता हैं| झुला, मिठाइयाँ, तरह-तरह के खिलौनों और समानों से मेला
बड़ा ही भव्य लगता है| कार्तिक पूर्णिमा को शुरू होने वाली यह भव्य मेला करीब 1
महीनों तक चलता हैं|
रेवा की चर्चा पुरानों में भी हैं| भगवान श्री राम
जनकपुरी जाते वक्त इसी गाँव में संध्या होने पर विश्राम किये थे| संध्या के ही
पर्याय शब्द से इसे 'रेवा' कहा जाने लगा| पूर्व समय में अपने पुरखों के शिक्षा और
सूझ-बुझ से गाँव ने खुबी प्रसिद्धि अर्जित की| आज भी हमें दूर-दराज के लोग उन्हीं
पूर्वजों के नामों से जानते है| जब शिक्षा के प्रति समाज चेतनाशून्य था तब से
हमारे गाँव में माध्यमिक स्कूल और बाद में एक हाईस्कूल भी बना था| मैं भी गाँव के
ही माध्यमिक स्कूल से पढ़ाई की थी| मैंने यहाँ चौथा से आठवां तक की पढाई की| 9वीं
और 10वीं भी गाँव के ही हाईस्कूल से की| यहाँ की शिक्षा बहुत ही अच्छी थी मगर बाद
के दिनों में सरकारी स्कूल के व्यवस्था से सभी परिचित हैं ही| जब मैंने 4वीं में
नामांकन लिया तो, शिक्षा प्रणाली बहुत ही बिगड़ चुकी थी| फिर भी इक्का-दूक्का
शिक्षकों के मार्गदर्शन में रहे| ज्यादातर मेरा समय शुरुआत के ही दिनों से पेड़ के
नीचे, स्कूल के पीछे ही बितता रहा| यहाँ भी काफी अच्छा अनुभव रहा| मैंने राजकीय
मध्यविद्यालय, रेवा से तीन कलाबाजी सीखी| खिड़की से बस्ता (स्कूल बैग) लेकर फरार होना|
लड़कियों के बेंच पर कलम से घसना, चप्पल पहन कर उनके बेंच को गन्दा करना| खैर बैंच
गन्दा करने का तरीका हमने लड़कियों से ही कॉपीपेस्ट किया था| आखिरी किसी के भी
मामले में टांग करना (हस्तक्षेप करना)| मेरी अनुमति के बिना कोई लंच के समय फ़रार
हो जाये असंभव और मैं लंच के बाद स्कूल में रूक जाऊ असंभव| मेरी आदत थी लंच के समय
किसी को भागने नहीं देने की और जैसे ही लंच समाप्त होता खुद भाग जाता था| इसके
कारण लड़कों से तो झगडा होती ही थी, लेकिन लड़कियाँ भी जितनी गलियां दी होगी, उसका
कोई हिसाब नहीं| मैं बाकी के नियमित छात्रों से पढ़ने थोड़ा तेज था| मेरे कई साथी को
तो 8वीं में भी हिंदी पढ़ने नहीं आती थी| मेरे साथ इक्का-दूक्का लडके-लड़कियों ही
पढने में ठीक थे| लेकिन सभी किसी दुसरे कान्वेंट स्कूल में पढ़ते थे, नहीं तो घर पर
ट्युशन या कोचिंन जाते थे, मगर स्कूल परीक्षा के समय या छात्रवृति के पैसे लेने
आते थे| मेरी तरह एक-दो ही थे जो रोज स्कूल आते थे| मेरी एक क्लासमेट थी, वो भी
नियमित स्कूल आती थी और पढ़ने में भी काफी तेज थी| कभी कभार बाते भी उससे हो जाती
थी| असल में मुझे वो अच्छी लगती थी| हमेसा से मेरे, उसके बीच प्रतिस्पर्धा और झगड़ा
ही रहा| गाँव के स्कूल में बातों बतंगर बनने में देर नहीं लगती है| दोस्तों ने भी
खूब हवा में मेरी अफवाहें उडाये| किसी के तो बैंच पर कुछ गलत भी लिख दिया था|
जिसके हमारी बातें बंद हो गई, कभी कभार जो नोटबुक और होमवर्क शेयर करता था वो भी बंद
कर दिया| उसके बाद मेरे साथ 6 साल (10वीं तक) पढ़ी, लेकिन मैंने कभी उससे बात करने
की प्रयास नहीं की| 8वीं पास होने में 2 या 3 महीने बचे थे तो मैंने उसी स्कूल में
रामजीलाल सर की कोचिंग पढ़ने लगे| वो काफी अनुभवी शिक्षक के साथ अपने जीवन के लगभग
आधी उम्र मेरे ही गाँव के स्कूल में बिता दिये थे| स्कूल में पढ़ने के साथ ही वो
9वीं और 10वीं से विद्यार्थियों को कोचिंग भी पढ़ते थे| उनका कोचिंग भी 15-16 वर्षो
तक लगातार शिक्षा का केंद्र बना रहा| गणेश सर के कान्वेंट स्कूल की तरह ही मैं
रामजीलाल सर के कोचिंन का भी आखरी विद्यार्थी रहा| उन्होंने (रामजीलाल सर) ने गांव
की लड़कियों को उच्च शिक्षा से जोड़ने का जो प्रयास किया| अगर वो नहीं पढाते, तो
बहुत सारे लडके-लड़कियां मेरे गाँव के 8वीं के बाद नहीं पढ़ पाते|
वर्ष 2012 में 8वीं उत्तीर्ण हुआ और गाँव के ही हाईस्कूल
से 9वीं में नामांकन लिया| यहाँ मैं 2 वर्षों तक पढाई की यानि 9वीं और 10वीं| आज
स्कूल में शिक्षकों की संख्या अपेक्षाकृत ठीक हैं, लेकिन जब मैं वहां से
विद्यार्थी जीवन व्यतीत कर रहा तब शिक्षकों की कमी थी| करीब 1400 विद्यार्थियों
संख्या थी और शिक्षक मात्र 2 ही थे| मेरे 10वीं उत्तीर्ण होने से 2 महीने पहले एक शिक्षक
की बहाली हुई 'अमित जी' मेरे बड़े भाई जैसे थे| आज भी वहां के छात्रों में काफी
प्रिय और नैतिष्ठ हैं| मैं अपने समय का नियमित छात्र था| वहां के सभी शिक्षक और
छात्र मुझे अच्छे से पहचानते थे| जब मैंने 9वीं में नामांकन लिया तो मेरे बड़े भाई
रितेश उस समय वही से 10वीं की पढाई कर रहे थे| वो मेरे थे, तो बड़े भाई! लेकिन सबसे
अच्छे दोस्ती उन्होंने ही निभाई| वो पहले से ही हाईस्कूल में पढ़ते थे| जिसके कारण
मुझे वहाँ शुरुआत में कोई परेशानी नहीं हुई| उनके दोस्त लोग भी मुझे अपने छोटे भाई
जैसा ही प्यार दिये| खासकर बंटी, नितीश, निशांत, महराणा और विश्वजीत भाई| मुझे नितीश
भाई से क्रिकेट खेलने की सूझ-बुझ के साथ डाट भी पड़ती थी| हाईस्कूल में मेरी
दोस्तों की भी लिस्ट काफी लम्बी थी| उस समय अंकित, अमरेश, विश्वजीत, चन्दन, उत्तम,
मुन्ना, पंकज, आदर्श मेरे दोस्तों की सूची में शीर्ष स्थान पर थे| यहाँ मुझे
क्रिकेट की लत लग गयी| खूब क्रिकेट खेली, पहले भी खेलता था मगर हाईस्कूल में आने
के बाद क्रिकेट मानों मेरी गर्लफ्रेंड हो| मैं तो क्रिकेट ही खेलने स्कूल आता था|
हाईस्कूल में भी मैंने दो और नये उदंडता सीखी| प्रार्थना के समय बातें करना और
लड़कियों की साईकिल के हवा निकलना| वैसे हम सभी लड़कियों से नहीं उलछाते थे मगर जो
व्यवस्था में नहीं रहती क्लास में ओवर बनती थी| उसी लड़की की साईकिल की हवा कोई ना कोई निकाल देता
था| एक मेरा जिगरी दोस्त था, हवा निकालने का काम उसका ही था| लेकिन मुझे इस बात की
ज्यादा ख़ुशी हैं कि हमलोगों में कोई भी लड़का शहरों की तरह दूषित विचार का नहीं था|
साईकिल की हवा भी निकलने के पीछे बस छोटी-छोटी खुशियाँ जुडी थी| आज भी ऐसे पल मुझे
अपनो के बीच खुद को ले जाता है, एक ऐसी यादो में डुबो देता है; जहाँ से निकालने का
मन नही करता है और ऐसी यादे सभी के पास होती है, वैसे भी ये हमारी यादे हैं!
- जितेश कुमार