शुक्रवार, 27 जुलाई 2018

अटल बिहारी के छात्र 'चिंतन नहीं चिंता में है' - जितेश सिंह

१. छात्र और महोदय के बीच संवाद
छात्र- महोदय परीक्षा कब होगी,
महोदय- फिर से परीक्षा एक महीने पहले तो हुई थी|
छात्र- आखिरी सेमेस्टर बचा था| एक विषय में ऐटीकेटी लगी है, उसकी परीक्षा कब होगी?
महोदय- अगले सेमेस्टर में!
छात्र- किन्तु इससे पहले तो बी.ए. षष्टम और एम.ए. चतुर्थ सेमेस्टर की परीक्षा में ऐटीकेटी आने पर परिणाम घोषित होने के ठीक बाद परीक्षा होती थी|
महोदय- उससे आपके 6 महीने बर्बाद होने से बच जायेंगे|
छात्र- महोदय ये तो अच्छी बात हैं!
महोदय- ये छात्रहित में नहीं!
२. अब संवाद दूससे छात्र के साथ
छात्र- बे चल महोदय को मार गोली, पंडित के पास चलते है|
दूसरा छात्र- पागल है तू, एक पंडित हमारा ऐटीकेटी की परीक्षा कैसे करवायेगा?
पहला छात्र- अबे ऐटीकेटी परीक्षा छोड़ मैं तो अपना हस्त रेखा दिखवाने जा रहा, तू भी चल!
दूसरा छात्र- पर क्यू?
पहला छात्र- पता तो चले कब सिर से सनी ग्रह का उतरेगा?
दूसरा छात्र- तब तो विद्यार्थी परिषद् वाले छात्र को पकड़ो| उनके पास सभी छात्र में नम्बर है| कल सभी साथ-साथ चलेंगे.....
विद्यार्थी परिषद् ज़िंदाबाद! छात्र शक्ति जिंदाबाद!
मेरा सन्देश- भईया प्रश्न जिन्दवाब वाले लोगों पर भी उठाने लगे है| समस्या पर शांति शोभा नहीं देती है|

बड़े लोग अक्सर कहते है, समस्या का सामना हंसते हुए करो| दुर्भाग्य है कि विवि अपने ही छात्रों के प्रति, उनके भविष्य के प्रति सचेत नहीं है| तभी तो बार-बार हमारे लिए संकट उन्पन्न कर रहा, जिससे हम परेशान और
हताश हो उठाते है| आखिर हमारी सुनाने वाला ही कौन है? विद्यालय में शिक्षक  के रहते छात्र को खुद, अनाथ बोलना और मानना पाप है| मगर बेसहारा तो वह बोल ही सकता है| अर्थ वही है, शब्द थोड़ी सुनने-सुनाने वालों को कम चुभती है| पिछले महीने सभी पाठ्यक्रम की परीक्षा 25 जून तक विवि में समाप्त हो चुकी थी| आज परिणाम भी आने शुरू हो गये है| परीक्षा में परिणाम सभी छात्रों एक सामान नहीं आते है| कुछ अच्छे नंबरों से पास हो जाते तो कुछ जैसे-तैसे सफल होते है| किन्तु एक शिक्षक दोनों छात्रों में भेदभाव नहीं करता है| पहले से तो यही होता आया है| लेकिन यूजीसी के पागल हो जाने के बाद से नियमों में बदलाव होने लगे या यू कहे यूजीसी के नाम को उछालकर कोई अपने दोषों को छुपा रहा है| अपनी जिम्मेदारी से पल्ले झार रहा है| बी.ए. और एम.ए. के छात्रों की, आखिरी सेमेस्टर की परीक्षा में यदि किसी विषय में ऐटीकेटी लगी हो तो परीक्षा तुरंत हो जाती थी| इससे, उनके भी 6 महीने बच जाते थे| लेकिन इस बार से ऐसा नहीं होगा, क्यू पता नहीं?
शुरूआती दौर में तो अटल बिहारी के विद्यार्थियों को चिंतन करना चाहिए कि कैसे विवि में छात्रों की संख्या बढे? कैसे व्यवस्था में बदलाव हो? शिक्षकों और छात्रों के बीच मधुर संवाद चलता रहे| मगर ऐसा कुछ नहीं; यहाँ तो दुसरे विश्वविद्यालय और कॉलेज से शिक्षक बुलवाकर विद्यार्थियों के जाति और धर्म का मजाक उड़वाया जाता है| प्रतिक्रया देने पर सरकारी कार्यों में व्यवधान उत्पन्न करने का दोषी करार देकर विवि से निकालने की बात होती है| जहाँ चिंतन की आवश्यकता है, वहां हम चिंता में डूबे है| बोलने वाले तो बोलेंगे ही किस बात की चिंता, काहे की चिंता? हमारी चिंता विभाग संबंधित है, हमारी चिंता शिक्षा संबंधित है, हमारी चिंता छात्रावास संबंधित है, हमारी चिंता पाठ्यक्रम कब बंद हो जाये से संबंधित है, हमारी चिंता परीक्षा और परिणाम संबंधित है, हमारी चिंता शिक्षकों को निलंबित करने संबंधित है, हमारी चिंता नये प्रोफेसर की बाहली  में विलंम संबंधित आदि कारणों से है| विवि ने जिन प्रकियाओं को हमारे चिंता के समाधान के लिए, उससे निपटने की लिए अपनाया है| इससे तो यही प्रतीत होता है, यह चिंता के निदान की प्रकिया नहीं, चिन्तक से निदान की प्रकिया है|
कुछ दिन पहले अटल जी की तबियत बिगड़ने की खबर पढ़ी थी| देश भर से बड़े-बड़े नेता उनसे मिलने पहुँचे| तब जाकर मिडिया वालों ने उनकी तबियत में सुधार की खबर दिखायी| एक हमारे अटल बिहारी है, जिनकी व्यथा सुनने-सुनाने वाला कोई नहीं! कुछ ही वर्षों में स्थिति ऐसी निर्मित की गई है कि आज हमें बोलने में कतई संकोच नहीं होगा कि अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय छात्रों के साथ, उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ कर रहा|  


   

सोमवार, 23 जुलाई 2018

गाँव की शिक्षा से मैं हूँ!

जुलाई का महीना हैं| भोपाल में लगातार तीन दिनों से वर्षा हो रही हैं| मौसम भी थोड़ी ठंडक हो गई हैं, इसलिए धुमना-फिरना दुर्लभ हो गया है| 10 दिन पहले मेरी बी.ए. फर्स्ट ईयर की परीक्षा समाप्त हुई| आप तो जानते ही हैं, कि शहर में रहकर पढ़ने वाले हम जैसे लड़कों को छुट्टियों में घर जाने की कितनी ख़ुशी होती हैं! जब मैं गाँव में पढ़ता था तब परीक्षा के दिन जैसे-जैसे नजदीक आते थे| सामान्य आदते छूटते चले जाते थे| बस स्कूल से घर, घर से स्कूल दिन-रात पढ़ते रहते थे| इतनी भी क्या जल्दी हैं, 1 महीने बाद परीक्षा नहीं हो सकती थे? अभी तो ठीक से तैयारी भी नहीं हुई हैं| आज जब गाँव से इतना दूर हूँ तो सच में परीक्षा से भय नहीं लगता| मैं तो अब चाहता हूँ कि सभी विषय की परीक्षाएं जल्दी हो जाये और एक बार फिर पहुँच जाऊ वही टूटी स्कूल, उखाड़े सडकों, बारिस से टपकता घरों में, बिछड़े दोस्तों के साथ कुछ पल बिताऊ| खासबात यह हैं, कि वो भी इसी पल का इंतजार करते हैं| मेरी तरह मेरे दोस्त भी शहरी जो हो गये है!

जितेश सिंह 

अ.बि.वा.हि.वि.वि., भोपाल

बारिस का तो पहले ही जिर्क किया था तो, आज एकदम से निक्कामों की तरह सोच रहा था! कैसे इतनी दूर पहुँच गया? क्या वो झोपड़पट्टी स्कूल के बुद्धू में इतना हौसला था? फिर पुरानी आपबीती से दिमाग घिर गया और मुझे अपने 'झोपड़पट्टी स्कूल' की यादे आने लगी| कुछ था वहाँ की स्कूल में खास जिसे अब तक भुला नहीं पाया| यह वही पवित्र स्थल था, जहाँ मैंने बोलना सिखा, जहाँ मैंने पढ़ना और लिखना सिखा| यहाँ कुछ तो पागलपन करता था, जिसे भुलना बईमानी होगी| जब तब तन्हाई में दोस्तों की योदों में, हताश, निराश, परेशान माहोल में होता हूँ, तो यही यादे मुझे जीने की शक्ति देती हैं| जो अय्यारी कल तक कमीनापन लगता था| आज मेरे लिए उर्जा स्रोत है और मेरा मार्गदर्शन कर रहा हैं| प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अपने स्कूल के दिनों की बेकार और बेवजह लगाने वाली धटनाएं जुडी हैं| प्रत्येक स्मरण में एक नई घटना जुडी हैं| एक दशक बाद वही यादे पुनर्जीवित हो जाती हैं| हर पल सहारा देती है, कभी भी तन्हाई, अकेलापन उस यादों में जीने पर महसूस नहीं होता है|
अच्छा ये तो सब को याद होगा ही बचपन के दिन स्कूल से ठीक पहले 9:30 से 11:00 तक पेट दर्द हो जाता था, फिर बिना दवा के आराम कैसे होता था? गाँव के पास एक कान्वेंट स्कूल में मेरा नामांकन हुआ था| मैंने यही गिनती, पहाड़े, बारहखड़ी के साथ ही होमवोर्क के पन्ने फाड़कर कचड़ा फैलाना भी सिखा था| जितनी थप्पर मुझे उस समय दोनों गालों पर पड़ी फिर कभी नहीं| आज जिस 'स्वच्छता आभियान' की मोदी चर्चा करते फिरते हैं| मेरे जीवन में 13 वर्ष पहले ही यह घटना घट चुकी हैं, उसके बाद से, मैंने कॉपी फाड़ना या किसी तरह का कचड़ा फैलना एकदम भूल ही गया| सर क्लास में कुर्सी पर बैठकर बारी-बारी से होमवर्क देख रहे थे| एकदम से उनकी नजर मेरे हरकतों पड़ी या किसी ने गद्दरी की पता नहीं! मैं अपना होमवर्क फाड़कर कागज का टुकड़ा बेंच नीचे फेका ही था, जैसे की जोर से दो बार ताली बजी मैं आवाज सुनकर रोने लगा| अनुमान आप लगाये ताली कहाँ बजी होगी? उसके बाद जो हुआ हास्य लगेगा लेकिन कष्ट इतना ज्यादा था कि पूछिये मत, क्लास रूम में कागज के जितने टुकड़ा गिरे थे, सभी मेरे मुंह में रखकर बिना हाथ की सहायता से कूड़ेदान में फेकना था| कूड़ेदान तक तो मैं पहुँच गया, मेरे मुंह में कागज का टुकड़ा इतना भरा था कि बिना हाथ लगाये कागज से टुकड़ों को मुंह से निकलना नामुमकिन था| करीब आधें घंटे धुप में कूड़ेदान के पास खड़ा रहा होगा| फिर मास्टर साहब का गुस्सा थोडा शांत हुआ तो हाथ लागाकर उन कागज के टुकड़ों को कूड़ेदान में फेक कर वापस आया| फिर से ताली बजी, आगे से होमवर्क नहीं फाड़ना और होमवर्क बनाकर लाना, जाओं बैठों!
नर्सरी में जो सजा मुझे मिली उसके बाद मैंने ना ही होमवर्क का पेज फाड़कर फेका और नहीं कभी किसी तरह की कचडा फैलायी| नर्सरी की यह सजा मुझे आज तक मार्गदर्शन करती रही- "जहाँ रहूंगा, स्वच्छ रखूंगा!"
होमवर्क, कविता और पाठ यादें नहीं रहने पर पिटाना तो रोज दूध पीने जैसे था| इसके साथ ही दोस्तों से झगड़ा, हो हल्ला, पोस्ट ऑफिस वाला खेल, एक दिन तो च्विंगम खाकर आगे वाली बेंच पर लगा दी, जिस पर लड़कियाँ बैठती थी| इन सभी बातों पर भी कुछ कम थप्पड़ या छड़ी नहीं खायी होगी! एक बार तो छुट्टी के समय इतनी पिटाई सभी दोस्तों की हुई, आज भी याद करके हंसी नहीं रूकती| उस समय मैं यु.के.जी. में था| घड़ी मेरे पास नहीं थी और ना ही किसी को टाईम देखने आती थी| अच्छा जरा ये सोचों कोई भी ऐसा लड़का-लड़की होगा, जिसे छुट्टी की बेचैनी ना हो शायद नहीं! सभी तो छुट्टी नाम मात्र से ही ख़ुशी मिलती है| उस वक्त छुट्टी सुनकर जो उत्साह मिलता था भला आज कहाँ? मेरी स्कूल की छुट्टी मुझे आज भी याद हैं, 'प्रियंका बस' के जाने के बाद होती थी| जैसे बस सड़क पर नजर आती सभी अपने बैग पैक करने लगते थे| कुछ लडके हमारी तरह उत्सास में चिल्लाने लगते थे 'छुट्टी'! दिन-प्रतिदिन हमारा चिल्लाने की आवाजों में वृद्धि होती गई| एक दिन मेरे साथ आशीष, बिक्कू, राहुल और सोनू की गणेश सर ने जमकर पिटाई की| जो फुलपैंट पहने थे उन्हें भी और जो हाफपैंट पहने थे उन्हें भी, मगर दोनों की पिटाई अलग थी| उसके बाद हमने 'प्रियंका बस' से रिश्ता ही तोड़ लिया| इसी प्रकार शैने: शैने: पढाई के साथ शरारते भी बढ़ी और पिटाईयों के ग्राफ भी बढ़ता गया| इस तरह से शुरूआत के 5 बरस तक यही मेरी शिक्षा-दीक्षा हुई|
जहाँ मैंने पढ़ना, लिखना, हँसना और सभी नैतिक क्रियाओं को सीखा| इसकी शिक्षा इतनी उच्चकोटि की थी कि दूर-दराज के गांवों में इसकी प्रसिद्धि थी| आर्थिक तौरपर यह स्कूल की मासिक शुल्क बहुत कम था| शिशु ज्ञान मंदिर, रेवाडीह आज भी आवेदन लिखते समय इसका शोर्ट फॉर्म नहीं भूल पाया हूँ| आस-पास बसे गांवों के बड़े-बुजुर्ग इसे यज्ञशाळा कहा करते थे| सच में यह यज्ञशाळा ही था| इसकी तप ने आस-पास के कितने गाँवो को शिक्षित किया| हजारों बच्चों के जीवन में शिक्षा की अलख जगी! इसके संचालक और प्रध्यानाचार्य श्री गणेश प्रसाद सिंह थे| शिक्षा को ग्रामीण स्तर पर जितना इन्होने बढ़ावा दिया हैं| उनके शिक्षारूपी ऋण को आज भी मैं क्या मेरे जैसे हजारों छात्र-छात्रा और उनके परिवार वाले नहीं चुका सकते हैं! मैं तो हमेसा मुफ्त में पढ़ता रहा| खासबात यह थी कि एक ही घर से तीन बच्चे एक साथ पढ़ें तो सबसे छोटे वाला की फ़ीस माफ़ थी| तो मेरा फीस नहीं लगता था| तभी तो मैंने पहले ही कहा "मैं तो मुफ्त में पढ़ने वाला विद्यार्थी था|" 1990 से 2008 तक यह विद्यालय अपनी सेवा से शिक्षा की ज्योति जलाते रहा| मुझे इस स्कूल से आखरी छात्र होने का गौरव प्राप्त है| गणेश सर के साथ ही कई अन्य शिक्षकों का भी सराहनीय योग्यदान था, सभी शिक्षकों तो नाम बताना मुस्किल है, यादे उबाऊ हो जायेगी| हाहाहा! लेकिन दो-चार शिक्षकों को स्मरण करना जिम्मेदारी बनती है, वो शिक्षक जो अंत तक स्कूल से जुड़े रहे, भारती जी थे| इनका भी योगदान महत्वपूर्ण हैं| 2008 में गणेश सर की सरकारी नौकरी हो गई| उसके बाद व्यवस्था और शिक्षकों की कमी से इसे बंद करना पड़ा| लेकिन तब तक कई कान्वेंट स्कूल और कोचिंग सेंटर आस-पास के गांवों में खुल चुके थे| लेकिन यज्ञशाळा तो यज्ञशाळा ही होता था! और मुर्गीफार्म मुर्गिफार्म ही! गांवों में 2008 से बाद नई स्कूल अधिकतर मुर्गीफ़ार्म में ही खुली जो शिक्षा क्रेंद से ज्यादा व्यावसायिक थी| 
मुज़फ्फरपुर से 35 किलोमीटर दूरी पर ही मेरा गाँव 'रेवा' हैं| मुजफ्फरपुर से पश्चिम की ओर छपड़ा-मुजफ्फरपुर जाने वाली NH 102, रेवा रोड के नाम से विख्यात हैं| सड़क के किनारे-किनारे ही बसा यह 22 टोला का गाँव सुप्रसिद्धि के साथ ही कूप्रसिद्धि भी हैं| यहाँ से गंडक नदी बहती हैं| नदीं के किनारे सुखे हुए भूभाग यहाँ के आय का मुख्य स्रोत हैं| वहां लोग तरबूजा, खरबुजा, लालमी, लौकी, खीरा, करेला उगाये हैं और इसी को बेच कर जीवन-यापन करते है| कुछ लोग मछली भी पकड़ते हैं| नदीं के पास ही एक प्राचीन शिवमंदिर भी हैं, जहाँ हमेशा भक्तों की आवा-जाही रहती हैं| मंदिर के आस-पास काफी चहल-पहल रहती हैं| सावन के पूरे महीने शिवमंदिर में रुद्राभिषेक, हवन, पूजा, भंडारा चलता रहता हैं| कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहाँ दूर-दराज से श्रद्धालु गंगा स्नान करने आते हैं| यहाँ पूर्णिमा के 10 पहले से ही मेला लगना शुरू हो जाता हैं| झुला, मिठाइयाँ, तरह-तरह के खिलौनों और समानों से मेला बड़ा ही भव्य लगता है| कार्तिक पूर्णिमा को शुरू होने वाली यह भव्य मेला करीब 1 महीनों तक चलता हैं|     
रेवा की चर्चा पुरानों में भी हैं| भगवान श्री राम जनकपुरी जाते वक्त इसी गाँव में संध्या होने पर विश्राम किये थे| संध्या के ही पर्याय शब्द से इसे 'रेवा' कहा जाने लगा| पूर्व समय में अपने पुरखों के शिक्षा और सूझ-बुझ से गाँव ने खुबी प्रसिद्धि अर्जित की| आज भी हमें दूर-दराज के लोग उन्हीं पूर्वजों के नामों से जानते है| जब शिक्षा के प्रति समाज चेतनाशून्य था तब से हमारे गाँव में माध्यमिक स्कूल और बाद में एक हाईस्कूल भी बना था| मैं भी गाँव के ही माध्यमिक स्कूल से पढ़ाई की थी| मैंने यहाँ चौथा से आठवां तक की पढाई की| 9वीं और 10वीं भी गाँव के ही हाईस्कूल से की| यहाँ की शिक्षा बहुत ही अच्छी थी मगर बाद के दिनों में सरकारी स्कूल के व्यवस्था से सभी परिचित हैं ही| जब मैंने 4वीं में नामांकन लिया तो, शिक्षा प्रणाली बहुत ही बिगड़ चुकी थी| फिर भी इक्का-दूक्का शिक्षकों के मार्गदर्शन में रहे| ज्यादातर मेरा समय शुरुआत के ही दिनों से पेड़ के नीचे, स्कूल के पीछे ही बितता रहा| यहाँ भी काफी अच्छा अनुभव रहा| मैंने राजकीय मध्यविद्यालय, रेवा से तीन कलाबाजी सीखी| खिड़की से बस्ता (स्कूल बैग) लेकर फरार होना| लड़कियों के बेंच पर कलम से घसना, चप्पल पहन कर उनके बेंच को गन्दा करना| खैर बैंच गन्दा करने का तरीका हमने लड़कियों से ही कॉपीपेस्ट किया था| आखिरी किसी के भी मामले में टांग करना (हस्तक्षेप करना)| मेरी अनुमति के बिना कोई लंच के समय फ़रार हो जाये असंभव और मैं लंच के बाद स्कूल में रूक जाऊ असंभव| मेरी आदत थी लंच के समय किसी को भागने नहीं देने की और जैसे ही लंच समाप्त होता खुद भाग जाता था| इसके कारण लड़कों से तो झगडा होती ही थी, लेकिन लड़कियाँ भी जितनी गलियां दी होगी, उसका कोई हिसाब नहीं| मैं बाकी के नियमित छात्रों से पढ़ने थोड़ा तेज था| मेरे कई साथी को तो 8वीं में भी हिंदी पढ़ने नहीं आती थी| मेरे साथ इक्का-दूक्का लडके-लड़कियों ही पढने में ठीक थे| लेकिन सभी किसी दुसरे कान्वेंट स्कूल में पढ़ते थे, नहीं तो घर पर ट्युशन या कोचिंन जाते थे, मगर स्कूल परीक्षा के समय या छात्रवृति के पैसे लेने आते थे| मेरी तरह एक-दो ही थे जो रोज स्कूल आते थे| मेरी एक क्लासमेट थी, वो भी नियमित स्कूल आती थी और पढ़ने में भी काफी तेज थी| कभी कभार बाते भी उससे हो जाती थी| असल में मुझे वो अच्छी लगती थी| हमेसा से मेरे, उसके बीच प्रतिस्पर्धा और झगड़ा ही रहा| गाँव के स्कूल में बातों बतंगर बनने में देर नहीं लगती है| दोस्तों ने भी खूब हवा में मेरी अफवाहें उडाये| किसी के तो बैंच पर कुछ गलत भी लिख दिया था| जिसके हमारी बातें बंद हो गई, कभी कभार जो नोटबुक और होमवर्क शेयर करता था वो भी बंद कर दिया| उसके बाद मेरे साथ 6 साल (10वीं तक) पढ़ी, लेकिन मैंने कभी उससे बात करने की प्रयास नहीं की| 8वीं पास होने में 2 या 3 महीने बचे थे तो मैंने उसी स्कूल में रामजीलाल सर की कोचिंग पढ़ने लगे| वो काफी अनुभवी शिक्षक के साथ अपने जीवन के लगभग आधी उम्र मेरे ही गाँव के स्कूल में बिता दिये थे| स्कूल में पढ़ने के साथ ही वो 9वीं और 10वीं से विद्यार्थियों को कोचिंग भी पढ़ते थे| उनका कोचिंग भी 15-16 वर्षो तक लगातार शिक्षा का केंद्र बना रहा| गणेश सर के कान्वेंट स्कूल की तरह ही मैं रामजीलाल सर के कोचिंन का भी आखरी विद्यार्थी रहा| उन्होंने (रामजीलाल सर) ने गांव की लड़कियों को उच्च शिक्षा से जोड़ने का जो प्रयास किया| अगर वो नहीं पढाते, तो बहुत सारे लडके-लड़कियां मेरे गाँव के 8वीं के बाद नहीं पढ़ पाते|
वर्ष 2012 में 8वीं उत्तीर्ण हुआ और गाँव के ही हाईस्कूल से 9वीं में नामांकन लिया| यहाँ मैं 2 वर्षों तक पढाई की यानि 9वीं और 10वीं| आज स्कूल में शिक्षकों की संख्या अपेक्षाकृत ठीक हैं, लेकिन जब मैं वहां से विद्यार्थी जीवन व्यतीत कर रहा तब शिक्षकों की कमी थी| करीब 1400 विद्यार्थियों संख्या थी और शिक्षक मात्र 2 ही थे| मेरे 10वीं उत्तीर्ण होने से 2 महीने पहले एक शिक्षक की बहाली हुई 'अमित जी' मेरे बड़े भाई जैसे थे| आज भी वहां के छात्रों में काफी प्रिय और नैतिष्ठ हैं| मैं अपने समय का नियमित छात्र था| वहां के सभी शिक्षक और छात्र मुझे अच्छे से पहचानते थे| जब मैंने 9वीं में नामांकन लिया तो मेरे बड़े भाई रितेश उस समय वही से 10वीं की पढाई कर रहे थे| वो मेरे थे, तो बड़े भाई! लेकिन सबसे अच्छे दोस्ती उन्होंने ही निभाई| वो पहले से ही हाईस्कूल में पढ़ते थे| जिसके कारण मुझे वहाँ शुरुआत में कोई परेशानी नहीं हुई| उनके दोस्त लोग भी मुझे अपने छोटे भाई जैसा ही प्यार दिये| खासकर बंटी, नितीश, निशांत, महराणा और विश्वजीत भाई| मुझे नितीश भाई से क्रिकेट खेलने की सूझ-बुझ के साथ डाट भी पड़ती थी| हाईस्कूल में मेरी दोस्तों की भी लिस्ट काफी लम्बी थी| उस समय अंकित, अमरेश, विश्वजीत, चन्दन, उत्तम, मुन्ना, पंकज, आदर्श मेरे दोस्तों की सूची में शीर्ष स्थान पर थे| यहाँ मुझे क्रिकेट की लत लग गयी| खूब क्रिकेट खेली, पहले भी खेलता था मगर हाईस्कूल में आने के बाद क्रिकेट मानों मेरी गर्लफ्रेंड हो| मैं तो क्रिकेट ही खेलने स्कूल आता था| हाईस्कूल में भी मैंने दो और नये उदंडता सीखी| प्रार्थना के समय बातें करना और लड़कियों की साईकिल के हवा निकलना| वैसे हम सभी लड़कियों से नहीं उलछाते थे मगर जो व्यवस्था में नहीं रहती क्लास में ओवर बनती थी| उसी  लड़की की साईकिल की हवा कोई ना कोई निकाल देता था| एक मेरा जिगरी दोस्त था, हवा निकालने का काम उसका ही था| लेकिन मुझे इस बात की ज्यादा ख़ुशी हैं कि हमलोगों में कोई भी लड़का शहरों की तरह दूषित विचार का नहीं था| साईकिल की हवा भी निकलने के पीछे बस छोटी-छोटी खुशियाँ जुडी थी| आज भी ऐसे पल मुझे अपनो के बीच खुद को ले जाता है, एक ऐसी यादो में डुबो देता है; जहाँ से निकालने का मन नही करता है और ऐसी यादे सभी के पास होती है, वैसे भी ये हमारी यादे हैं!
                                                       
                                                 - जितेश कुमार                                  
    

                          

शनिवार, 21 जुलाई 2018

शिक्षक नहीं शिक्षा की पिटाई हुई थी! - जितेश सिंह

लखीचंद उच्च विद्यालय रेवा से ही मेरी पढाई हुई है| उसी पवित्र स्थल से मैंने प्रेरणा ग्रहण की है| वही शिक्षक मुझे मार्ग और लक्ष्य पर अडिग होना सिखाया था| वही से मैंने उड़ान भरी थी| यह मेरा जन्म और समाज से बंधा उड़ानतल (एयरपोर्ट) है| इसके प्रति मेरा सदैव भावनात्मक संबंध रहा है| मैं अभी भोपाल में हूँ, जैसे ही मुझे इस कुकृत घटना की जानकारी हुई| मेरी संवेदनाएं कुछ समय के लिए मृत हो गई| जैसे वहाँ के लोगों की हो गयी थी, इस अमानवीय घटना को अपने आँखों से देखने के बावजूद वो मौन थे| आज वहां के उक्त समाज, शिक्षा स्थल पर हुये इस अमानवीय चीरहरण पर निशब्द रह कर इसे बढ़ावा दिया है|


     
लखीचंद उच्च विद्यालय रेवा में शिक्षक की पिटाई की खबर ने मुझे अन्दर से झकझोर दिया| आखिर किसका अपमान हुआ और कौन समाज में प्रतिष्ठा पाया? यह शिक्षक नहीं शिक्षा की पिटाई है| गुरुवार के दिन जो कुकृत आरोपी छात्र के परिजन ने किया, एक शैक्षणिक स्थान में बाहुबल का प्रदर्शन निंदनीय के साथ शर्मशार करने वाली घटना थी| आसपास के सामाजिक घटकों का मौन रहना, मृत समाज जैसा प्रतिक हो रहा था| ना कोई जातिगत, परिवारगत, धर्म-मजहबगत, कभी किसी बात की प्रतिशोध भी उधार नहीं था| फिर निर्दोष शिक्षक पर दोषी परिजनों के खिलाफ लगाया आरोप मिथ्या है| शिक्षक के चरित्र पर प्रश्न खड़ा करने वाले परिजनों को क्या इतना भी ज्ञान नहीं था? शिक्षक की गलती भी थी, तो क्या ये जो कुकृत किया गया है, क्या यह आपके न्यायप्रक्रिया का भाग था? स्पष्ट करे, न्याय यही है तो सबसे पहले मैं आपके संस्कार, समाज, पूर्वज और पड़ोसियों को मृत मनाता हूँ| जिन्होंने केवल आपको उच्चकोटि के जानवर बना कर छोड़ दिया, संस्कार, चरित्र, परम्परा, सामाजिक, ज्ञान, दिया ही नहीं था| जिसके आप मनुष्यता और मानवता को ओर बढ़ सके| आपके द्वारा किया गया, यह महापाप जानवार की भांति प्रतीत होता है|

जितेश सिंह पूर्व छात्र, रेवा हाईस्कूल

इस अमानवीय घटना पर हमारा समाज चुपी तोड़ने का नाम भी नहीं ले रहा है| इस निंदनीय घटना के तीन दिन बीत चुके है, किसी प्रकार का गपशप और चौपाल नहीं बैठी है, क्यूकि शिक्षा का मामला है, साईकिल और पोशाक की पैसे की बात होती तो विरोध में समाज निकल पड़ता है, अपने मुंह शिक्षकों को गाली बकता और कुछ लोग मुंह में मुंह मिलकर बोलने लगते, फ़रियाद जिला तक पहुँच गई होती अब तक| एक शिक्षक को डटने और पढ़ने की जो गुरु-दक्षिणा दी गई है| यह कोई आम घटना नहीं जो भुलाया जा सकता, ना ही यह अन्यायपूर्ण घटना समाज को भुलाने देगा| क्या उक्त दोषी गुरु-शिष्य परम्परा को वैश्या की तरह चौराहे पर बेच कर आयी है? यह घटना केवल मुजफ्फरपुर (बिहार) के रेवा हाईस्कूल की नहीं, यह घटना बदलते समाज की, आधुनिकता, नववादी वैचारिक परिवेश की है, जो दिन-प्रतिदिन बार-बार हमारे परम्परा और संस्कृति पर घात कर रहा, उसे लहूलुहान कर रहा है| बुद्धिजीवी और उक्त स्थान का समाज पुरुषार्थ भूलकर और विवेक भूलकर इस कुकृत को देख रहा और स्वमं कर भी रहा| क्या वहां का समाज अपने ऊपर लगे इस कलंक को धो पायेगा? जब समाज ही ऐसे कुकृत पर मृत हो जाते हो, तो मुझे प्रशासनिक कारवाई की उम्मीद भी छोड़ देनी चाहिए|


  • अगर स्वर्थाकता भी बचा है, तो चौपाल लगा कर उक्त दोषी पर कारवाई करो| नहीं तो यही परिस्थिति आपके बच्चे के सामने भी आयेंगे, तब समय बदल गया होगा, वो गाली-गलौज, मार-पिट और रक्तरंजित आपके साथ होगा और आप निर्लज की भांति अपनी निर्बलता पर रोयेंगे| एक दिन सहसा वो दिन भी आ जायेगा जब गुरु पर उठे वही हाथ से सर पे वार होगा, उसी समय आपका शर्म के अंत हो जायेगा| खैर पढ़ा नहीं सकते तो संस्कार ही दे बच्चों को, इसी से उनका आत्मज्ञान बढ़ायेगा| याद रहे एक शिक्षक पर हाथ छोड़ने वाले बच्चे अपने पिता से कितनी दूर?              

सोमवार, 2 जुलाई 2018

कांग्रेस की टिप्पणी 'विकास' और अटल बिहारी हिंदी वि.वि.,भोपाल

हिंदी भाषा का उत्थान, हिंदी का विकास! अध्ययनशील छात्रों में राष्ट्रभाषा के प्रति लगाव, समर्पण की वैचारिक भावना से 'अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, भोपाल' का निर्माण हुआ था| भाषागत अध्ययन की सकारात्मक पहल का निर्णय, सच में एक क्रान्तिकारी नीति और योजना थी|

जितेश कुमार
अ.बि.वा.हि.वि.वि.


लगभग दो सौ पाठ्यक्रम विभिन्न विषयों से संबंधित पूर्णत: हिंदी में शुरू किये गए| जिसमें अभियांत्रिकी, मेडिकल, विभिन्न विषयों में आनर्स, योग, पत्रकारिता, जैसे नामचीन अंग्रेजी में मान्यता प्राप्त विषय भी हिंदी में आरंभ हुई| अंग्रेजी में मान्यता प्राप्त इसलिए कहा "क्युकि इन विषयों की पढाई हिंदी में लगभग न के बराबर हो रहा था| अगर किसी संस्थान में लागु भी था तो इन्हें उचित प्लेटफार्म प्राप्त नहीं था|" लेकिन भोपाल स्थित 'अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय' जिसका शुभारंभ पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के कर-कमलों से हुआ था| हिंदी भाषा में इन सभी पाठ्यक्रमों को पढ़ने के लिए उचित भी और आशापूर्ण संस्थान के रूप में उभर कर आया| 10वां विश्व हिंदी सम्मलेन और कुम्भ में विवि की जमकर हिन्दीप्रेमियों ने स्वागत किया| शासन और विवि की खूब तारीफे हुई और होना भी चाहिए था| माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने भी विवि के प्रति अपना मंतव्य बताते हुए कहे कि सकरात्मक पहल है, देश में ऐसे विश्वविद्यालयों की आवश्यकता थी| उन्होंने तो यहाँ तक कहा था, कि इसे अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय बनाया जायेगा| प्रधानमंत्री जी  की बातों को सुनकर उपस्थित हिंदी से अध्ययनकर्ता और अध्ययनदाताओं को जिस सुख का अनुभव हुआ होगा| व्यक्त करना बड़ा मुश्किल कार्य हैं|

मैं और मेरे जैसे जितने भी अध्ययनकर्ता हैं| हिंदी प्रेमी तो आवश्य ही हैं| विवि में नामांकन के समय जो विश्वास और उद्देश्य हमारे अंत:मन में था| जो संवेदनाएं हमारे मन, मस्तिक और ह्रदय में उत्पन्न हो रहा था| जो आकर्षण हमें अपने विषयों को हिंदी में पढ़ने को लेकर था पहले कभी किसी विषय को लेकर उत्पन्न नहीं हुआ| एक ध्येय और स्वप्न था| राष्ट्रभाषा हिंदी से पढ़े! हिंदी से बढ़ें!
आज 7 वर्ष बाद कोई विवि के बारे में विद्यार्थियों मत जानना चाहे तो उपयुक्त बातों का विपरीत सुझाव देगा| हिंदी से अपने पाठ्यक्रम में अध्ययन करने की ईच्छा आज भी है और रहेगी| मगर अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय से नहीं! इसका बड़ा कारण यहां कि अव्यवस्था है, विवि में 7 वर्षो के बाद भी प्रोफेसरों की नियुक्ति नहीं हुई| संविदा और अतिथि विद्वानों की संख्या में भी अपेक्षाकृत कमी है| सही मार्गदर्शक का अभाव है तो कुछ ऐसे भी अतिथि विद्वान विभाग के सेक्रेटरी बन कर बैठे है, जिसका ताल-मेल विभाग के छात्रों से नगण्य हैं| समय से ना ही परीक्षायें होती हैं, ना परिणाम घोषित किये जाते हैंछात्रों के साथ जातीयता के आधार पर भेदभाव भी उभरकर सामने आया हैं| अंकित पंचौरी के साथ जिस प्रकार से मौखिक परीक्षा के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी के प्रो. संजीव गुप्ता ने बरताव किया| उनके जाति का मजाक उड़ाया, उन्हें अपमानित किया गया| इसके विपरीत विभाग के अतिथि विद्वान संदीप श्रीवास्तव, अंकित पंचौरी पर ही कार्यवाई और उसे निकालने की बात कर रहे, क्यूकी अंकित पंचौरी नीची जाति हैं| यह प्रसंग बहुत ही नीचता और दुर्भाग्यपूर्ण हैं|
   
व्यवसाय नही जो आय/व्यय के आधार पर किस विभाग में कितना खर्च हो रहा और उससे कितना फायदा देखा जाये| शैक्षणिक संस्थान में मूल्यांकन की व्यवसायिक पद्धति 'नव-चैतन्य' भरने वाले अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय की ख्याती गिरा रही हैं| जिस प्रकार विवि ने वितीय समस्याएं, विद्वानों की कमी, छात्रों की कमी से निपटने का प्रयास किया हैं| अब तक 114 से ज्यादा पाठ्यक्रम बंद किये जा चुके है| कुछ विद्वानों की घर वापसी और छात्रावास बंदी के साथ ही नामचीन पाठ्यक्रम जिससे विवि को विशेष पहचान मिली थी| सभी एक के बाद एक बंद होते चले गये| जैसे-आनर्स, अभियांत्रिकी, मेडिकल, योग आदि| छात्रावास जिन परिस्थिति में बंद करने के आदेश दिये गये, जिस प्रकार इसे बंद किया गया, उसका भी मूल कारण व्यवसायिक पद्धति ही है| उपयुक्त समस्याओं से निदान और विवि के विकास की यह आधुनिकत्म प्रक्रिया गुजरात चुनाव में कांग्रेस की टिप्पणी को पुनः याद दिलाती हैं|                

वित्तीय संकट छात्रावास बंदी से खत्म होगी - हिंदी विश्वविद्यालय!

इन दिनों वित्तीय समस्याओं से घिरा विवि अजीबो-गरीबों फैसले लेकर समस्या का समाधान कर रहा| इस पर एक पुरानी कहावत मुझे याद आ गयी - " ना रहे बांस ना बाजे बासुरी!" बहुत दु:खी मन से कुछ आलोचना करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ|

जितेश कुमार 

 अ.बि.वा.हि.वि.वि.

इसके लिए मैं अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय, भोपाल के प्रशासनिक इकाई का ऋणी रहूंगा| फिल्मों में बहुत देखा था किस प्रकार पैसा के आभाव में| या किसी अन्य कारण से किराया नहीं देने पर कुछ बुद्धिमान लोग निवेदन करते है| बाईज्जत अहिंसक रूप से मार-पीट किया जाता है| घर के बरतन-बासन, अन्य सामग्री को सावधानीपूर्वक घर से बाहर फेका दिया जाता है| जिसके बाद बेवस व्यक्ति दुखित स्वर में बड़ा सा घर, जिससे उसे निकाला नहीं जा सकता| उस तरफ इशारा करता है, आकाश और भूमी! और फूटफाट पर गुजर बसर करता है|
मगर किराया अगर एडवांस मिला हो फिर भी उसे विशेष परिस्थिति में इसप्रकार के प्रयास झलने को मिलता है| उस समय मालिक कोई बड़ा होटल या कल-कारखाने के उद्देश्य से अहिंसक रूप से डरा-धमा कर, मार-पीट कर घरेलू सामग्री को सावधानीपूर्वक तोड़ कर, फूटफाट पर रहने को मजबूर करता है| खास बात है कि इन प्रकिया में हिंसकरूप से मकान  खाली करने के कुछ समय दिये जाते है, लेकिन जब हिंसात्मक रूप से मकान तय समय पर नहीं खाली हुआ तो उपयुक्त शांतिप्रिय प्रकियां की जाती है| जिसके लिए के समाननीय नागरिक बुलाये जाते है, जिनका यही कार्य होता है| अब्बू जल्लेला, अहमद़ मियां, झंकार भाई, करतार भाई जैसे नामचीन व्यक्ति आते है और मकान चन घंटो में खाली! लेकिन तय समय से पहले ऐसा नहीं होता! आज जिस प्रकार विवि ने  छात्रावास को खाली किया| ऐसा तो फिल्मों में भी नहीं देखा| सभी छात्र तैयार और प्रतिबन्ध थे| हमें विवि के तरफ से 30 जून का समय दिया गया था| लेकिन 22-23 जून से ही विवि के प्रशासनिक इकाई ने छात्रावास खाली करने लिए प्रेेसर बनाने लगे| यहां के गार्ड साहब हमें जल्द खाली करने के लिए फरमान देने लगे| 25 जून को ही छात्रावास खाली करने के बारे में सुनकर स्वमं मेरी बात विवि के कुलपति जी हुई उनके आश्वासन से लगा की 30 जून तक कोई संकट नहीं होगा| मगर कल 29 जून को ही जब मैं स्वयं विवि में था तो छात्रावास खाली करने की पुरी व्यवस्था के साथ विवि द्वारा निर्देशित व्यक्ति पहूंच गये| जिसके बाद मेरी बात कुलसचिव और बाद में कुलपति जी से भी हुई| मगर क्या फायदा जब इसतरह ही निकालनी थी तो 25 को निकाल देते| उस समय छात्रावास में था| अपना समान तो व्यवस्थित कर लेते| 

कांग्रेस की निफ्टी और सेंसेक्स दोनों में भारी गिरावट के पूर्वानुमान

भविष्य में क्या होंगी, मैं नहीं जनता हूँ |  इस दौर में बहुत लोग अभिव्यक्ति की आजादी का अलाप जप रहे है |  तो मुझे भी संविधान के धारा  19  क...