मंगलवार, 4 दिसंबर 2018

“फुटपाथ" - लेखिका कुमारी अर्चना

कुमारी अर्चना

 पूर्णियां, बिहार 

मोर्या होटल का
आलिशान बिलडिंग
राजशी ठाठ बाट

नेता,अभिनेता बड़े लोगों से
यहाँ की महफिल सजती है
कई हजारों के एक कमरे
मंजिलों पे कई मंजिले
आगे पीछे नौकर चाकर
सुरक्षा के लिए तैनात दरवान
जैसे बाॅडर पर जवान!

देख कर तो लगता है
किसी बड़े अधिकारी
या नेता का घर हो
बत्तीयों की सजावट से
नई दुल्हन सी लगती है!

रात के काले अंधेरे में
जब कुकूर केवल भौंकता है
शहर सोता है उजाले में
होटल के आगे नंगी फर्श पर
कई भिखारी सोए रहते है
या यूँ कहे बस एक जिंदा लाश
पड़ी रहती है जब तक कि

होटल का दरबान गेट नहीं खोलता
फिर लाशे चलने लगती है
एक घर से दूसरे घर
एक दुकान से दूसरे दुकान
एक सड़क से दूसरे सड़क पर
हाथ फैलाए कटोरा लिए
दर दर भटकते हुए
संवेदना का लावा जैसे
आँखों से फूट पड़ेगा
और कलेजा मुँह को!

इतने आलिशान होटल में
क्या एक कमरा खाली नहीं
या बरामदे का कोई कोणा
जहाँ पर अपनी गरीबी छूपा सके
तन को किसी वस्त्र से ढक
ठंड़ को मात दे सके!

शायदा नहीं!
ये कैसे हो सकता है,
यहाँ सभ्य और प्रतिष्ठित लोग रहते
भिखारी अस्भय और नंगे लोंगो
के स्पर्श भर से महामारी फैल जाएगी
स्वास्थ पर दुष्प्रभाव पड़ेगा
हजारों की फीस भरनी होगी
कपड़े अलग खराब होंगे
ड्रायक्लीनर को देने पडेंगे!

होटल का प्रतिष्ठता
जाती रहेगी सो अलग
कमरों के रेट कम होंगे
लोग इस होटल के बजाय
दूसरे होटलों में जाएगे
एक भिखारी मरता है तो मरने दो!
ये उसके कर्मों का फल है
कि वो गरीब पैदा हुआ!

हाँ गरीब,भिखारी पैदा होना
मेरे ही कर्मफल है
कोई इसे क्यों बाँटे या कम करें!

फुटपाथ पर पैदा होना और मरना
जन्मसिद्ध अधिकार है
आजादी पाने का सौभाग्य है!
इससे तो अच्छा होता कि हम
गुलाम रहते सब बराबर तो रहते!

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