दर्पण।
***
मैंने पूछा दर्पण से-
दर्पण !
तू सबकुछ स्पष्ट दिखाता है,
पर चेहरे तक ही सिमटकर
क्यो रह जाता है ?
अंतर में क्या हलचल है ?
क्यो मन इतना चंचल है ?
क्यो मृगमरीचिका में फँसा हुआ है ?
क्यो दलदल में धँसा हुआ है ?
यह क्यो नही दर्शाता है ?
दर्पण !
तू सबकुछ स्पष्ट दिखाता है,
पर चेहरे तक ही सिमटकर
क्यो रह जाता है ?
इस प्रश्न को सुनते ही तत्क्षण
कई दर्पण टूटे, कई दरक गए।
कई कँगूरे की शोभा थे
वो भी ज़मीन पर सरक गए।
फिर भी मैं न समझ सका तो
महल का अंतिम दर्पण भी टूट गया
वह दीवार में टंगा हुआ था
वह भी ज़मीन पर आकर फूट गया।
मैं समझ गया !
मैं समझ गया !
यह कहकर मैंने चिल्लाया।
सच बोलना कितना मुश्किल है !
शायद ! इसी बात को दर्पण ने समझाया।
- गणिनाथ सहनी, रेवा
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मैंने पूछा दर्पण से-
दर्पण !
तू सबकुछ स्पष्ट दिखाता है,
पर चेहरे तक ही सिमटकर
क्यो रह जाता है ?
अंतर में क्या हलचल है ?
क्यो मन इतना चंचल है ?
क्यो मृगमरीचिका में फँसा हुआ है ?
क्यो दलदल में धँसा हुआ है ?
यह क्यो नही दर्शाता है ?
दर्पण !
तू सबकुछ स्पष्ट दिखाता है,
पर चेहरे तक ही सिमटकर
क्यो रह जाता है ?
इस प्रश्न को सुनते ही तत्क्षण
कई दर्पण टूटे, कई दरक गए।
कई कँगूरे की शोभा थे
वो भी ज़मीन पर सरक गए।
फिर भी मैं न समझ सका तो
महल का अंतिम दर्पण भी टूट गया
वह दीवार में टंगा हुआ था
वह भी ज़मीन पर आकर फूट गया।
मैं समझ गया !
मैं समझ गया !
यह कहकर मैंने चिल्लाया।
सच बोलना कितना मुश्किल है !
शायद ! इसी बात को दर्पण ने समझाया।
- गणिनाथ सहनी, रेवा
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