शुक्रवार, 2 फ़रवरी 2018

दर्पण ! @गणिनाथ सहनी

दर्पण।                                            
                                 
 ***

मैंने पूछा दर्पण से-
दर्पण !
तू सबकुछ स्पष्ट दिखाता है,
पर चेहरे तक ही सिमटकर
क्यो रह जाता है ?


अंतर में क्या हलचल है ?
क्यो मन इतना चंचल है ?
क्यो मृगमरीचिका में फँसा हुआ है ?
क्यो दलदल में धँसा हुआ है ?
यह क्यो नही दर्शाता है ?


दर्पण !
तू सबकुछ स्पष्ट दिखाता है,
पर चेहरे तक ही सिमटकर
क्यो रह जाता है ?


इस प्रश्न को सुनते ही तत्क्षण
कई दर्पण टूटे, कई दरक गए।
कई कँगूरे की शोभा थे
वो भी ज़मीन पर सरक गए।


फिर भी मैं न समझ सका तो
महल का अंतिम दर्पण भी टूट गया
वह दीवार में टंगा हुआ था
वह भी ज़मीन पर आकर फूट गया।

मैं समझ गया !
मैं समझ गया !
यह कहकर मैंने चिल्लाया।
सच बोलना कितना मुश्किल है !
शायद ! इसी बात को दर्पण ने समझाया।

         - गणिनाथ सहनी, रेवा

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