मंगलवार, 11 मई 2021

महानायक विनायक दामोदर सावरकर

जितेश कुमार
जिला प्रचारक, बेगूसराय
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ

विनायक दामोदर सावरकर एक महानायक थे। वह भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रिम पंक्ति के सेनानी थे। उन्हें प्रायः वीर सावरकर से संबोधित किया जाता है। सावरकर क्रांतिकारी के साथ एक प्रखर वक्ता और राष्ट्रवादी लेखक भी थे। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर की भूमिका भले ही राजनीतिक पूर्वाग्रह के कारण छुपाई जाती रही हो, लेकिन आज की पीढ़ी ने इतिहास में गुमनाम उन सभी पृष्ठों को खोजना शुरू कर दिया है और इसी गुमनाम पृष्ठों में दशकों तक दबे रहे, आजादी के महानायक प्रखर विचारक, दूरदर्शी प्रतिभा के धनी विनायक दामोदर सावरकर! वीर सावरकर का जन्म 28 मई 1883 ई. को हुआ था। उनका जन्म महाराष्ट्र प्रांत में पुणे के समीप बसा एक छोटे-सेगांव भांगूर में हुआ था। उनके पिता दामोदर पंत आस-पास के गांव में लोकप्रिय थे। लोग उन्हें सम्मान की नजर से देखते थे। सावरकर जी की मां राधाबाई सुसंस्कृत और धार्मिक वृत्ति की थी। बाल्यावस्था से ही सावरकर और उनके दोनों भाई राधा मां से गीता रामायण के पाठ सुनते सुना करते थे। राधाबाई अपने तीनों पुत्रों को वीर शिवाजी की कहानियां सुनाती थी। सावरकर जब अपने दोस्तों को मां द्वारा बतलाई कहानी को सुनाते हैं, तो पूर्णतः कहानी के पात्र बन जाते हैं और उनके जैसा ही व्यवहार करते। लेकिन यह प्रक्रिया ज्यादा दिन नहीं चल पायी। गांव में आयी महामारी की बीमारी में राधाबाई चल बसी। उस वक्त सावरकर की आयु मात्र आठ या नौ वर्ष की थी। उनके पिता दामोदर पन्त सावरकर और बड़े भाई गणेशराव ने उनका और उनके छोटे भाई नारायण दामोदर का लालन-पालन किया।  वे चाहते थे कि सावरकर पढ़े और आगे चलकर बैरिस्टर बने। पढ़ाई-लिखाई में सावरकर चतुर थे। हमेशा वर्ग में प्रथम आते थे। इसके साथ ही उनके मन में स्वाधीनता और आजादी के संघर्ष भी पनपते गये। उन दिनों '1857 की स्वतंत्रता संग्राम' के किस्से गांवों में खूब प्रचलित थी। सावरकर भी 1857 की क्रांति के किस्से सुनकर आग बबूला हो उठते। सावरकर में बाल्यकाल से ही क्रांतिकारी गुण कूट-कूट कर भरे थे। सावरकर आठवीं कक्षा के दौरान ही अंग्रेजों के विरुद्ध कविता व भाषण देने लगे थे। उनके ओजस्वी भाषण से लोगों में तिलमिलाहट उत्पन्न होती थी। इसी समय सावरकर ने एक गुप्त क्रांतिकारी संगठन 'मित्र मेला' का गठन किया। जो क्रांतिकारी की भाषा बोलती थी और तिलक जी द्वारा प्रकाशित स्वाधीनता के लेख की जगह-जगह चर्चा करती और जनमानस को स्वाधीनता के लिए प्रेरित करती थी। इसी समय से तिलक जी सावरकर को जानने लगे थे। सावरकर अपने गुप्त क्रांतिकारी संगठन में रोज नये-नये छात्रों को जोड़ते थे। हमेशा नए छात्रों से परिचय करते और उन्हें अपनी मित्र मंडली में जोड़ते थे। सन् 1899 ई. में जब भांगूर गांव में दूसरी बार महामारी फैली थी। जिसमें सावरकर के पिता के साथ गांव के सैकड़ों लोग चल बसे थे। हर घर से चीख-पुकार की आवाज आती थी।  उनके अंतिम संस्कार के लिए भी लोग नहीं जाते थे। उन्हें डर था कि उन्हें बीमारी न फैल जाये। ऐसे में सावरकर की मित्र मेला के सदस्य उन्हें उनके दुख में शामिल होते और परिवारजन के साथ शमशान तक जाते हैं। यह प्रसंग सावरकर को सिर्फ क्रांतिकारी नहीं तो अपितु एक सामाजिक संवेदनशील महामानव  की पुष्टि करता है। पिता की मृत्यु के बाद घर की स्थिति दयनीय थी। जो कुछ थोड़ा बहुत था, उसे चोरों ने चुरा लिया। गणेशराव ने घर की जिम्मेदारी अपने सर पर ली। वह सावरकर की पढ़ाई जारी रखें। सन् 1902 में शिवाजी हाई स्कूल से दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की और उच्च शिक्षा के लिए सावरकर पुणे गये।वहां फर्ग्यूसन कॉलेज से स्नातक कला की पढ़ाई पूरी की। शिवाजी हाई स्कूल में सावरकर पर कई बार प्रतिबंध लगे थे। क्योंकि वह ब्रिटिश शासन के खिलाफ कविता
और भाषण देते थे। ब्रिटिश शासन के प्रति सावरकर के विरोधाभास को सुनकर पुणे के गलियों में विरोध की लहर दौड़ दौड़ जाती थी। लोग सावरकर से जुड़ने लगे। उनकी लोकप्रियता इस कदर बढ़ रही थी कि जब महारानी विक्टोरिया के जन्म दिवस समारोह का उन्होंने विरोध किया तो सैकड़ों विद्यार्थियों ने सावरकर के स्वर को हवा दी। इसके कारण मुख्य आरोपी सावरकर को मानकर एक माह के लिए स्कूल से निकाल दिया गया और साथ ही ₹10 के जुर्माने भी लगाए गए थे। तब सैकड़ों लोगों ने सावरकर को पत्र लिखकर जुर्माना की राशि  देने की विनती की थी। तब बाल गंगाधर तिलक ने वहां के प्रिंसिपल को एक पत्र को लिखी गई थी तब जाकर प्रतिबंध हटाए गए थे। प्रतिबंध हटने के बाद जब सावरकर  फर्ग्यूसन कॉलेज पहुंचे तो सभी छात्र विनायक दामोदर से जुड़ना चाहते थे। देखते ही दखते वहां भी क्रांति की लहर दौड़ पड़ी। कॉलेज में दिन-प्रतिदिन सावरकर की सामूहिक भाषण व्याख्यान होने लगे। सावरकर पहली बार पूर्ण स्वतंत्रता के लिए सन् 1904 में 'अभिनव भारत' नामक क्रांतिकारी संगठन की उद्घोषणा की। जिससे हजारों की संख्या में लोग जुड़े। 1905 में बंग-भंग के समय पूरे महाराष्ट्र में अभिनव भारत के कार्यकर्ताओं ने जनता को बंग-भंग के विरोध खड़ा किया। भारत में पहली बार ऐसा हुआ था, जब कोई क्रांतिकारी विदेशी कपड़ों को जलाकर विरोध प्रदर्शन किया हो। इसके बाद महाराष्ट्र में हर छोटे-बड़े चौराहे पर विदेशी कपड़ों की होलिका दहन शुरू हो गई। इसे भारतीय स्वाभिमान की पहली लड़ाई कहा जा सकता है, जब कोई क्रांतिकारी अंतः करण से स्वदेशी और भारतीयता की बात कर विदेशी कपड़ों की होली खेली हो। इस अभियान को आगे चलकर महात्मा गांधी  जैसे नेताओं ने अपनाया। सन् 1996 बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए सावरकर लंदन चले गये। उन्होंने देखा वहां भारतीयों के साथ निम्न दर्जा का बर्ताव किया जाता है, उन्होंने होटल के कोने में या बाहर बैठने की अनुमति थी। यही नहीं पढ़ने वाले विद्यार्थियों को भी क्लास रूम में पीछे बैठना पड़ता था। भारतीयों को टेबल-कुर्सी को बैठने नहीं दिया जाता था। ऐसे में सावरकर ने भारतीय मूल के लोगों से संपर्क किया और 'स्वतंत्र भारतीय समाज' की स्थापना की। जिसके प्रमुख सदस्य मदन लाल ढींगरा, वापट, लाला हरदयाल, मैडम भीखाजी कामा, चतुर्भुज व चितरंजन दास थे। सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे। जिन्होंने भारतीय स्वाधीनता की लड़ाई को वैश्विक रूप दिया। लंदन में सावरकर ने आयरलैंड, रूस, फ्रांस, इटली व जर्मनी के युवाओं से संपर्क किया। जो अपने स्तर से ब्रिटिश शासन का विरोध कर रहे थे। वैसे लोगों को एकत्रित किया जिन्हें अंग्रेजों ने गुलाम बनाया था। जो अपने मातृभूमि की आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे।
सावरकर ने  1857 की क्रांति का विस्तृत अध्ययन किया और एक खोज पुस्तक द फर्स्ट वार ऑफ इंडिपेंडेंस 1857 लिखी। यह पुस्तक ब्रिटिश शासन की पोल खोलने के साथ उन तमाम चाटूकारों, जिन्होंने ने 1857 की क्रांति को महज छोटा सा सैनिक विद्रोह बताया था के विपरीत इस  पुस्तक में  1857 की क्रांति की सटीक व्याख्या की गई थी। सावरकर ने अपनी खोजपूर्ण लेखिनी से सिद्ध कर दिया। 1857 की क्रांति केवल सैनिक विद्रोह नहीं बल्कि जन-
आंदोलन था। पुस्तक में 1857 की क्रांति की सत्यता से भयभीत होकर  शासन ने इसके प्रकाशन पर पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में रोक लगा दिया। फिर भी फ्रांस से उसका गुप्त प्रकाशन हुआ और इसकी गोपनीय वितरण भी भारत एवं अन्य ब्रिटिश साम्राज्य वाले  में देशों में हुआ। सावरकर ने गुरु गोविंद सिंह और सिखों का इतिहास लिखा। मैजिनी की जीवनी पर लिखी पुस्तक का मराठी भाषा में अनुवाद किया। इसकी प्रस्तावना से भयभीत होकर शासन इस पुस्तक पर भी बैन लगा दी। सावरकर एक क्रांतिकारी लेखक थे, इसका प्रमाण सावरकर के प्रत्येक पुस्तक को भारत में प्रकाशित नहीं होने देना था। पुस्तक के प्रकाशन से पहले ही उस पर बैन लगा देना। ब्रिटिश अधिकारी के अनुसार सावरकर के पुस्तक मेजनी में रासायनिक हथियार बनाने की तकनीक का भी उल्लेख किया गया था। इस प्रकार के आरोप लगाकर उनके पुस्तकों पर बैन लगा दिया गया। मदन लाल धींगरा सावरकर के मित्र और लंदन में स्वतंत्र भारतीय समाज के सदस्य भी थे ने सावरकर की जासूसी और सावरकर के पुस्तकों को बैन करने की मांग करने वाले ब्रिटिश अधिकारी विलियम हॉट कर्जन वायली की हत्या कर दी। इधर 'अभिनव भारत' के कार्यकर्ताओं ने पुणे के कलेक्टर जैक्सन की हत्या कर दी। दोनों के हत्याकांड के षडयंत्र में ब्रिटेन व भारत दोनों जगह सावरकर के  गिरफ्तारी की वारेंट निकाले गये। सावरकर की गिरफ्तारी हुई और उन्हें जहाज से समुद्र मार्ग के द्वारा भारत लाया गया। सावरकर जहाज से समुद्र में कूद पड़े और तैरकर फ्रांस बंदरगाह पहुंच गए, परंतु उनका पीछा करते हुए ब्रिटिश सुरक्षाकर्मियों ने उन्हें पकड़ लिया। इस घटना ने सावरकर को रातों-रात विश्वविख्यात वीर सावरकर बना दिया।
सावरकर को भारत लाया गया उन्हें कालेपानी की सजा हुई। वीर सावरकर पहले ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा दी गई। सावरकर को 1910 में अंधेमान स्थित सैल्यूलर जेल भेजा गया। जहां क्रांतिकारियों से जानवरों की तरह काम लिए जाते थे। छोटी-छोटी गलतियां पर पिटाई की जाती थी। कई क्रांतिकारियों ने इसी क्रूर यातनाएँ से आत्महत्या करना आसान समझा। लेकिन सावरकर ने उन सभी यातनाएँ  के बावजूद वहां के क्रांतिकारियों को एकत्रित किया। कई बार उन्हें इसके लिए अधिक शारीरिक कष्ट झेलना पड़ा, परंतु सावरकर डटे रहे। जेल की दीवारों पर उन्होंने छः हजार से अधिक कविता की पंक्तियां अपने नाखून से लिखी

और कंठस्थ की। महाराष्ट्र में सावरकर के प्रति लोगों की सहानुभूति बढ़ती जा रही थी आये दिन लोग अंग्रेजों पर हमलावर हो रहे थे इससे भयभीत अंग्रेजों ने सावरकर को 11 वर्षों के बाद अंडमान से रत्नागिरी जेल भेज दिया इसके 3 वर्ष बार उन्हें 1937 तक गृहबंदी रत्नागिरी में ही रहना पड़ा। इसी बीच सावरकर सामाजिक क्रांति में कूद पड़े। छुआछूत, रोटीबंदी और बेटीबंदी के विरुद्ध क्रांति की।  सामूहिक भोज का आयोजन किये। जिसमें सर्व समाज को शामिल किया। पतित पावन मंदिर का निर्माण करवाया। जिसमें सभी वर्ग जाति के लोग एक साथ पूजा में शामिल हो सकते थे, पहली बार दलित पुजारी को मंदिर में स्थापित किया। इस प्रस्ताव को सभी ने बड़े आदर से स्वीकार किया। सावरकर रत्नागिरी में गृहबन्दी के दौरान सैकड़ों सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। इसी बीच गई बड़े क्रांतिकारी व सामाजिक राजनीतिक नेताओं को टोली सवकरकर से परामर्श लेने आती रहती थी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार भी कई बार सावरकर से मिली रत्नागिरी पहुंचे। महात्मा गांधी भी रत्नागिरी सावरकर से मिलने पहुंचे। 
जब 1937 में सावरकर पाबंदी से मुक्त हुए तो देश स्थिति की देखते हुए हिंदू महासभा से जुड़े और 6 वर्षों तक लगातार इसके अध्यक्ष बने रहें। जब भारत के बंटवारे के प्रस्ताव को मुस्लिम लीग ने लायी, तो सावरकर ने इसकी कड़ी आलोचना की। फिर भी बंटवारे की नींव पहले ही तैयार हो चुकी थी। अब तो किसके हिस्से में कितना आता है, महज बचा था। फिर भी सावरकर ने मुस्लिम लीग की साजिश का जोरदार विरोध किया था। उन्होंने एक खोजी रिपोर्ट प्रकाशित की। जिसमें पंजाब व बंगाल को पाकिस्तान में मिलाने के लिए वहां बड़े पैमाने को मुसलमानों को बसाया जा रहा है। सीमावर्ती क्षेत्रों में जबरन धर्मांतरण का कार्य किया जा रहा है। सावरकर के इस रिपोर्ट के बाद देश में  मुस्लिम लीग का जबरदस्त विरोध शुरू हुआ।परिणाम भारत  खंडित हुआ तब बंगाल और पंजाब के बड़े हिस्से को सावरकर के कारण मुस्लिम भारत से अलग नहीं कर पाई थी। 
15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ तो सावरकर ने धर्म ध्वज भगवा व राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा को एक साथ फहराया। सावरकर ने कहा आजादी की खुशी है तो वही राष्ट्र के खंडित होने का दुख भी है!
  
मैं कल से नहीं,
कालेपानी का कालकूट पीकर काल के कराल स्तंभों को झकझोर कर,
मैं बार-बार लौट आया हूं 
और फिर भी जीवित हूं। 
हारी मृत्यु मैं नहीं
               -----वीर सावरकर

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