गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

परिन्दो का चमन।. @ गणिनाथ साहनी

परिन्दो का चमन।                          
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वो मुसाफ़िर ! थके लगते हो !
बैठले ! विश्राम करले !
यह परिन्दो का चमन है,
यहाँ न कोई छीना झपटी।
अपने सिर की गठरी रखकर
थोड़ा-सा आराम करले !
वो मुसाफ़िर ! थके लगते हो !
बैठले ! विश्राम करले !

राह चलते-चलते तेरी
कृशकाया श्रांत हो गई;
जेठ की तपती दुपहरी
थोड़ा-सा मन शांत करले !
वो मुसाफ़िर ! थके लगते हो !
बैठले ! विश्राम करले !

मत घबरा !
अब पहुँच चुके हो गाँव अपने।
बड़े दिन बाद लौटे हो,
चेहरे पर शहरी थकान है !
न चंचलता है, न मुस्कान है।
अभी सूरज मध्य में है, परवान पर है;
थोड़ा बिलम ले ! हम रंगबिरंगी चिड़ियों के संग
कलरव गान करले !
वो मुसाफ़िर ! थके लगते हो !
बैठले ! विश्राम करले !

          - गणिनाथ सहनी, रेवा

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