गणिनाथ सहनीमुजफ्फरपुर, बिहार |
जलाई कर्म की ज्योति
गगन तक फैल गया आलोक
गर्वित थे सभी उसपरगगन तक फैल गया आलोक
धरातल और देवतालोक।
कर दिया पर्वत का गरूर
चूर चूर।
श्रम के सुरूर में गदगद
आत्मसंतोष से भरपूर।
न चेहरे पर असमंजस की थकान
दृढ़ इच्छा देखकर प्रकृति हैरान।
हथौड़े की हर चोट पर सुकून भरी मुस्कान।
अनवरत, अडिग, कर्मरत इनसान!
न प्रसिद्धि की चाह।
न दुःख की परवाह।
निरंतर छेनी पर हथौड़े का अविचल प्रवाह।
हृदय में गज़ब का उत्साह!
कभी-कभी कर्मनिष्ठा देखकर
पाषाण भी घबराता,
द्रवीभूत होने की चेष्टा करता,
पर धर्मभ्रष्ट होने का डर
उसे ऐसा करने से रोकता।
काट-काट कर पर्वत
घटा दी दूरी,
बना दी नई राह।
बाईस वर्षो का अथक श्रम तप
और आज वाह-वाह!
वो इनसानियत के दुख-दर्द में
भागीदार था;
सुख-दुख में साझी था।
वह गहलौर की मिट्टी में पला-बढ़ा
कर्मयोगी दशरथ माँझी था।
गणिनाथ सहनी, रेवा,
मुजफ्फरपुर, बिहार।
मो.- 9939329611
9431049733
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